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BSEB Class 9 Hindi पद्य Chapter 11. समुद्र कवि | Samudra Kahani Class 9th Hindi Solutions

October 30, 2023 by Leave a Comment

Bihar Board Class 9 Hindi समुद्र कवि (Samudra Kahani Class 9th Hindi Solutions) Text Book Questions and Answers

11. समुद्र कवि

सीताकांत महापात्र
समुद्र का कुछ भी नहीं होता ।
मानो अपनी अबूझ भाषा में
कहता रहता है
जो भी ले जाना हो ले जाओ
जितना चाहो ले जाओ
फिर भी रहेगी बची देने की अभिलाषा ।
क्या चाहते हो ले जाना, घोंघे ?
क्या बनाओगे ले जाकर ?
कमीज के बटन ?
नाड़ा काटने के औजार ?
टेबुल पर यादगार ?
किंतु मेरी रेत पर जिस तरह दिखते हैं
उस तरह कभी नहीं दिखेंगे ।

अर्थ—कवि समुद्र के चरित्र पर प्रकाश डालते हुए कहता है कि मनुष्य समुद्र से कितना भी लेता है, उसमें कोई कमी नहीं आती क्योंकि वह अक्षय है। वह मनुष्य की असीम आकांक्षा की ओर इंगित करते हुए कहता है कि मेरे द्वारा सबकुछ देने के बावजूद तुम्हें तृप्ति नहीं मिलेगी। कवि यहाँ मनुष्य की उपभोक्तावादी प्रवृत्ति को उजागर करता हुआ कहता है कि मनुष्य अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए सारे प्राकृतिक सौंदर्य को विद्रूप बना देता है । इसीलिए समुद्र मनुष्य को कहता है कि तुम अपने यादगार के लिए अथवा निजी उपयोग के लिए जिन वस्तुओं का उपयोग करते हो, उनका वास्तविक सौन्दर्य नष्ट हो जाता है।

व्याख्या—प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि सीताकांत महापात्र द्वारा लिखित कविता “समुद्र’ शीर्षक से ली गई हैं। इनमें कवि ने समुद्र के चरित्र तथा मानव की उपभोक्तावादी प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला है।

कवि का कहना है कि समुद्र अक्षय है। वह मनुष्य को सब कुछ देना चाहता है,ताकि मनुष्य संतुष्ट हो जाए । परन्तु मनुष्य अपनी उपभोक्तावादी प्रवृत्ति के कारण संतुष्ट नहीं हो पाता। वह इसी प्रवृत्ति के कारण प्राकृतिक सौंदर्य का विनाश करने पर तुला हुआ है। समुद्र खेद प्रकट करते हुए कहता है कि चाहे मनुष्य किसी वस्तु का निर्माण क्यों न कर ले,परन्तु समुद्र की रेत पर अर्थात् समाज के बीच मनुष्य जितना सौन्दर्य बिखेरता है अथवा सम्मान पाता है, उतना किसी निर्मित वस्तु के रूप में अथवा व्यक्तिगत संपन्नता में नहीं । तात्पर्य कि समाजरूपी समुद्र के बीच ही मनुष्य के चरित्र का विकास होता है, जैसे समुद्र की रेत पर घोंघे जिस तरह दिखते हैं, वैसे टेबुल पर यादगार के रूप में नहीं।

या खेलकूद में मस्त केंकड़े ?
यदि धर भी लिया उन्हें
तो उनकी आवश्यकतानुसार
नन्हे-नन्हे सहस्र गड्ढों के लिए
भला इतनी पृथ्वी पाओगे कहाँ ?
या चाहते हो फोटो ?
वह तो चाहे जितना खींच लो
तुम्हारे टीवी के बगल में
सोता रहूँगा छोटे-से फ्रेम में बँधा
गर्जन-तर्जन, मेरा नाच गीत, उद्वेलन
कुछ भी नहीं होगा ।

अर्थ—कवि मनुष्य को संबोधित करते हुए कहता है कि खेलकूद में मस्त केंकड़ों को यदि पकड़ लेता है तो उनकी आवश्यकतानुसार नन्हे-नन्हें हजारों गड्ढे बनाने के लिए समुद्र के किनारे के अतिरिक्त इतना विस्तृत क्षेत्र कहाँ उपलब्ध हो सकता है। तात्पर्य कि आनन्द प्राप्ति के लिए समाज से बढ़कर कोई दूसरा क्षेत्र नहीं है। समुद्र मनुष्य की उपभोक्तावादी प्रवृत्ति पर खेद प्रकट करते हुए कहता है कि वास्तविक सौन्दर्य का अनुभव प्रकृति के मूल रूप में ही निहित होता है, फोटो या तस्वीर में नहीं। क्योंकि इसमें समुद्र में उठती लहरें तथा गर्जन-तर्जन दृश्य देखने को नहीं मिलते।

व्याख्या– प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि सीताकांत महापात्र द्वारा विरचित कविता ‘समुद्र’ शीर्षक से ली गई हैं। इनमें कवि ने मनुष्य की उपभोक्तावादी संस्कृति की तीखी आलोचना की है।

कवि का कहना है कि आज मनुष्य अपनी उपभोक्तावादी प्रवृत्ति के कारण जीवन की सच्चाई से दूर होता जा रहा है। मनुष्य प्रकृति-प्रेम की उपेक्षा कर कृत्रिमता की ओर उन्मुख होता आ रहा है। कवि का कहना है कि जीवन का असली रस प्रकृति से मिलता है। उसमें वास्तविकता होती है। प्रकृति मनुष्य में भाव का संचार करती है, जिससे मनुष्य के अन्दर अनेक प्रकार की कल्पनाएँ स्फुरित होती और उपयुक्त वातावरण पाकर एक ऐसा रूप धारण कर लेती हैं कि मनुष्य को अक्षय बना देती हैं। परन्तु उपभोक्तावादी प्रवृत्ति के कारण समाज का स्वरूप बिगड़ता जा रहा है। फलतः कवि ने इस प्रवृत्ति का कटु आलोचना की है।

जो ले जाना हो ले जाओ, जी भर
कुछ भी खत्म नहीं होगा मेरा
चिर-तृषित सूर्य लगातार
पीते जा रहे हैं मेरी ही छाती से
फिर भी तो मैं नहीं सूखा ।
और जो दे जाओगे, दे जाओ खुशी-खुशी
पर दोगे भी क्या
सिवा अस्थिर पदचिह्नों के
एक-दो दिनों की रिहायश के बाद
सिवा आतुर वापसी के ?

अर्थ–समुद्र मनुष्य से कहता है कि तुम जितना चाहो, जी भर के ले जाओ क्योंकि वह अक्षय है। सूर्य की प्रचंड किरणें भी उसके जल को सूखा नहीं पातीं। वह खेद भरे शब्दों में कहता है कि मनुष्य अपने अस्थिर पदचिह्नों के सिवा दे भी क्या सकता है, क्योंकि मनुष्य को प्रकृति के प्रति कोई खास लगाव नहीं होता। वह तो अपने स्वार्थ कीभूति हात ही वापस लौटने के लिए व्यग्र हो उठता है। अतः कवि के कहने का भाव यह है कि समाज समुद्र के समान अक्षय होता है। समाज उसे हर कुछ देने को व्यग्र रहता है किन्तु स्वार्थी मानव अपनी अभिलाषा की पूर्ति होते ही समाज से अलग हो जाता है।

व्याख्या–प्रस्तुत पंक्तियाँ सीताकांत महापात्र द्वारा लिखित कविता ‘समुद्र’ से ली _ गई हैं। इनमें कवि ने मनुष्य की उपभोक्तावादी प्रवृत्ति की ओर ध्यान आकृष्ट किया है।

कवि समुद्र के माध्यम से सामाजिक चरित्र का उद्घाटन किया है। कवि का कहना है कि समाज समुद्र के समान महान् एवं अक्षय होता है। वह इतना उदार होता है कि व्यक्ति उससे लाभ लेते-लेते थक जाता है, फिर भी वह अक्षय ही रहता है। लेकिन मनुष्य अपनी स्वार्थी-प्रवृत्ति के कारण अपने अस्थिर पदचिह्नों के सिवा कुछ भी नहीं दे पाता। तात्पर्य कि वह अपनी अभिलाषा की पूर्ति होते ही सामाजिक मान्यताओं से अलग ऐसे वातावरण के निर्माण में लग जाता है जिसका समाज में कोई मूल्य नहीं होता। अर्थात् जिससे समाज का कोई कल्याण नहीं होता। अतः कवि के कहने का भाव है कि उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त होती जा रही है और मनुष्य स्वार्थ के कारण अमानवीय होता जा रहा हैं।

उन पदचिह्नों को
लीप-पोंछकर मिटाना ही तो है काम मेरा तुम्हारी
आतुर वापसी को
अपने स्वभाव सुलभ
अस्थिर आलोड़न में
मिला लेना ही तो है काम मेरा ।

अर्थ-कवि उन उपभोक्तावादी लोगों को संदेश देता है कि कवि का काम तो सामाजिक बुराई को उजागर कर उसे दूर करना होता है । कवि की प्रबल इच्छा रहती है कि भटके हुए लोग सहजतापूर्वक स्वस्थ सामाजिक परंपरा से जुड़ जाएँ और कवि का काम भी तो टूटे हुए समाज को संगठित करना होता है, ताकि आदर्श समाज कायम रह सके।

व्याख्या– प्रस्तुत पंक्तियाँ मानवतावादी कवि सीताकांत महापात्र द्वारा विरचित कविता ‘समुद्र’ शीर्षक कविता से ली गई हैं। इनमें कवि ने उपभोक्तावादी मानव कीतीखी आलोचना करते हुए कहा है कि कवि का कर्म स्वस्थ समाज का निर्माण करना होता है ताकि भटके हुए मानव उस समाज या संस्कृति से जुड़े रहे।

कवि अपना आंतरिक अभिलाषा प्रकट करते हुए कहता है कि वह उन भटके हुए मानवों को समाज से जोड़ने के लिए प्रयत्नशील रहता है। कवि किसी वर्ग या समुदाय विशेष के लिए नहीं होता, वह समग्र समाज को आदर्श पथ पर अग्रसर होते देखना चाहता है, ताकि स्वस्थ परंपरा कायम रह सके। अतः कवि सामाजिक बगदयों को करने तथा मानवता की स्थापना के लिए होता है।

अभ्यास के प्रश्न और उनके उत्तर

कविता के साथ :

प्रश्न 1. समुद्र ‘अंबूझ भाषा’ में क्या कहता रहता है ?
उत्तर—समुद्र ‘अबूझ भाषा’ में यही कहता है कि वह अक्षय है। मनुष्य जितना चाहे ले ले, फिर भी उसकी देने की अभिलाषा खत्म नहीं होती है, क्योंकि वह मनुष्य की उपभोक्तावादी प्रवृत्ति को जानता है ।

प्रश्न 2. समुद्र में देने का भाव प्रबल है । कवि समुद्र के माध्यम से क्या कहना चाहता है ?
उत्तर—कवि समुद्र के माध्यम से यह कहना चाहता है कि समाज समुद्र के समान ही अक्षय है । वह मनुष्य को सब कुछ देना चाहता है, परन्तु मनुष्य अपनी उपभोक्तावादी प्रवृत्ति के कारण स्वार्थी हो जाता है तथा मानवीय संवेदना से हीन रह जाता है

प्रश्न 3. निम्नांकित पंक्तियों का भाव- सौन्दर्य स्पष्ट करें :
‘सोता रहूँगा छोटे से फ्रेम में बँधा
गर्जन-तर्जन, मेरा नाच गीत उद्वेलन
कुछ भी नहीं होगा।”

भाव- सौंदर्य – समुद्र अपनी हार्दिक अभिलाषा प्रकट करते हुए कहता है कि जीवन का आनंद उसके प्राकृतिक रूप में निहित होता है, उसके बनावटी रूप में नहीं । यहाँ कवि समुद्र के माध्यम से मनुष्य की उपभोक्तावादी संस्कृति पर कटाक्ष किया है कि मनुष्य हृदयहीनता के कारण प्राकृतिक सौन्दर्य का आनंद लेने में असमर्थ हो गया है। उसके हृदय के प्रेम-रस सूख गए हैं। इसी शुष्कता के कारण कागज के टुकड़े पर अंकित तस्वीर को वास्तविक मान आनंदित होना चाहता है

प्रश्न 4. ‘नन्हे नन्हें सहस्र गड्ढों के लिए / भला इतनी पृथ्वी पाओगे कहाँ’ से कवि का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर—कवि के कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्ति के विकास के लिए विस्तृत समाज के सिवा दूसरा क्षेत्र कहाँ मिलेगा। तात्पर्य कि मनुष्य समाज के बीच रहकर ही पूर्ण विकास पाता है ।

प्रश्न 5. कविता में ‘चिरतृषित’ कौन है ?
उत्तर— कविता में ‘चिर् तृषित’ सूर्य अर्थात् मानव है ।

प्रश्न 6. सप्रसंग व्याख्या करें :
(क) उन पचिह्नों को,
लीप-पोंछकर मिटाना ही तो है काम मेरा
तुम्हारी आतुर वापसी को
अपने स्वभाव सुलभ
अस्थिर आलोड़न में
मिला लेना ही तो है काम मेरा ।

उत्तर– संकेत : पृष्ठ 199 पर व्याख्या संख्या-4 देखें

(ख) क्या चाहते हो ले जाना घोंघे ?
क्या बनाओगे ले जाकर ?
कमीज के बटन
नाड़ा काटने के औजार ।

उत्तर- संकेत : पृष्ठ 196 पर व्याख्या संख्या-4 देखें ।

प्रश्न 7. समुद्र मनुष्य से प्रश्न करता है । इस तरह के प्रश्न के पीछे की उपभोक्तावादी प्रवृत्ति का पता चलता है । आप इससे कहाँ तक सहमत हैं ? इस मनुष्य पर अपने विचार प्रकट करें ।
उत्तर – कवि के विचार से मैं पूर्ण सहमत हूँ । इसका मुख्य कारण यह है कि आज मनुष्य इतना स्वार्थी हो गया है कि वह अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए प्राकृतिक सौन्दर्य को विद्रूप बनाने पर तुला हुआ है। तात्पर्य कि ऐसे मनुष्यों ने स्वार्थवश सारी सामाजिक व्यवस्था को अस्त-व्यस्त बना दिया है, जिससे अपसंस्कृति सिर उठाने लगी है। इसी कारण कवि ने उपभोक्तावादी संस्कृति की तीखी आलोचना की है ।

प्रश्न 8. कविता के अनुसार मनुष्य और समुद्र की प्रकृति में क्या अंतर है ?
उत्तर – कविता के अनुसार मनुष्य और समुद्र की प्रकृति में यही अंतर है कि समुद्र मनुष्य को सबकुछ देना चाहता है क्योंकि वह अक्षय है जबकि मनुष्य उपभोक्तावादी प्रवृत्ति का है । समुद्र उदार, त्यागी तथा परोकारी है तो मनुष्य, स्वार्थी, लोभी तथा क्रूर है । वह प्रकृति का निर्दयतापूर्वक शोषण कर रहा है ।

प्रश्न 9. कविता के माध्यम से आपको क्या संदेश मिलता है ?
उत्तर – कविता के माध्यम से हमें यही संदेश मिलता है कि हमें सारी संकीर्णताओं का त्याग कर समुद्र के समान उदार बनना चाहिए। हर मनुष्य के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए तथा सामाजिक परिवेश को सुसंस्कृत रखने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि स्वस्थ समाज से ही स्वस्थ संस्कृति विकसित होती है ।

प्रश्न 10. ‘किंतु मेरी रेत पर जिस तरह दिखते हैं। उस तरह कभी नहीं दिखेंगे’ पंक्तियों के माध्यम से कवि का क्या आशय है?
उत्तर—प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से कवि यह बताना चाहा है कि मनुष्य समाज में रहकर ही सम्मान पाता है । समाज से अलग होते ही वह अस्तित्वहीन हो जाता है। जैसे समुद्र की रेत पर घोंघें जितना महत्त्वपूर्ण आकर्षक दिखते हैं उतना बटन या अन्य उपकरण बनने पर नहीं ।

प्रश्न 11. ‘जितना चाहो ले जाओ / फिर भी रहेगी बची देने की अभिलाषा’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर—कवि समुद्र के माध्यम से यह स्पष्ट करना चाहा है कि उदार मनुष्य सब कुछ देने के बावजूद संतुष्ट नहीं होता। उसकी देने की अभिलाषा शेष ही बनी रहती है। तात्पर्य कि महापुरुष व्यक्ति को देने अथवा उपकार करने के लिए ही शरीर धारण करते है। अतः यहाँ समाज की उदारता पर प्रकाश डाला गया है ।

प्रश्न 12. इस कविता के माध्यम से समुद्र के बारे में क्या-क्या जानकारी मिलती है ?
उत्तर—प्रस्तुत कविता के माध्यम से समुद्र की विशालता, अक्षयता तथा अतुल भंडार की जानकारी मिलती है। समुद्र को रत्नाकर कहा जाता हैं। इसमें विभिन्न प्रकार के रत्न तो मिलते ही हैं, साथ ही विभिन्न प्रकार के अलभ्य जीव भी पाए जाते हैं । . समुद्र इतना गहरा तथा विशाल होता है कि चिर-तृषित सूर्य भी इसके जल को सूखा नहीं पाता ।

नोट : कविता के आस-पास के प्रश्नों के उत्तर छात्र स्वयं तैयार करें ।

भाषा की बात ( व्याकरण संबंधी प्रश्न एवं उत्तर ) :

प्रश्न 1. निम्नांकित शब्दों से संज्ञा तथा सर्वनाम को अलग-अलग करें :
संमुद्र, कुछ, टेबुल, अपने, फोटो, तुम्हारे, वह, घोंघें

उत्तर :
संज्ञा                   सर्वनाम
समुद्र                 कुछ
टेबुल                 अपने
फोटो                 तुम्हारे
घोंघें                   वह

प्रश्न 2. निम्नांकित शब्दों के दो-दो पर्यायवाची शब्द बनाएँ :
उत्तर : शब्द                    पर्यायवाची शब्द
समुद्र                             सागर, जलनिधि
अभिलापा                        इच्छा, आकांक्षा
पृथ्वी                             धरा, वसुंधरा
सूर्य                               भानु, भास्कर

प्रश्न 3. निम्नलिखित शब्दों से समास बनाएँ :
अस्थिर, पदचिह्न, आवश्यकतानुसार

उत्तर- जो स्थिर न हो = अस्थिर = नञ समास
पद (पैर) का चिह्न = पदचिह्न = षष्ठी तत्पुरुष
आवश्यकता के अनुसार आवश्यकतानुसार = षष्ठी तत्पुरुष

प्रश्न 4. कविता से विदेशज शब्द चुनें |
उत्तर – विदेशज शब्द — कमीज, बटन, टेबुल, फोटो, टीवी, फ्रेम | 

प्रश्न 5. पठित कविता से क्रियापद को चुनें ।
उत्तर — होता, कहता, रहता, लेना, जाना, चाहना, दिखना, पाना, सोना, मिलाना आदि ।

प्रश्न 6. निम्नलिखित के रेखांकित कारक – चिह्नों को पहचानें ।
(क) कमीजों के बटन
(ख) टेबुल पर यादगार
(ग) खेलकूद में मस्त केंकड़े
(घ) नन्हे-नन्हें सहस्र गड्ढों के लिए
(ङ) उन पदचिह्नों को ।

उत्तर : (क) ‘के’ संबंध कारक
(ख) ‘पर’ अधिकरण कारक
(ग) ‘में’ अधिकरण कारक
(घ) ‘के लिए’ सम्प्रदान कारक
(ङ) ‘को’ कर्म कारक

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