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कक्षा 10 भूगोल पाठ 1 (क) प्राकृतिक संसधन | Prakritik Sansadhan Class 10 Notes

November 13, 2022 by Leave a Comment

दिया गया पाठ का नोट्स और हल SCERT बिहार पाठ्यक्रम पर पूर्ण रूप से आधारित है। इस लेख में बिहार बोर्ड कक्षा 10 भूगोल के पाठ एक ‘प्राकृतिक संसधन(Prakritik Sansadhan Class 10 Notes and Solutions)’ के नोट्स और प्रश्‍न-उतर को पढ़ेंगे।

Prakritik Sansadhan Class 10

Prakritik Sansadhan Class 10 Notes and solution

(क) प्राकृतिक संसाधन
प्रकृति-प्रदत्त वस्तुओं को प्राकृतिक संसाधन कहते हैं। जैसे- जल, वायु, वन आदि।
हम भूमि पर निवास करते हैं। हमारा आर्थिक क्रिया-कलाप इसी पर संपादित होता है। इसलिए भूमि एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है। कृषि, वानिकी, पशु-चारण, मत्स्यन, खनन, वन्य-जीव, परिवहन-संचार, जैसे आर्थिक क्रियाएँ भूमि पर ही सम्पन्न होते हैं।
भूमि संसाधन के कई भौतिक स्वरूप हैं, जैसे- पर्वत, पठार, मैदान, निम्नभूमि और घाटियाँ इत्यादि। भारत भूमि संसाधन में संपन्न है। यहाँ कुल भूमि का 43 प्रतिशत भू-भाग पर मैदान है जो कृषि और उद्योगों के लिए उपयोगी है। 30 प्रतिशत भाग पर्वतीय क्षेत्र और 27 प्रतिशत भाग पठारी क्षेत्र है।
मृदा निर्माण :
मृदा- पृथ्वी की सबसे ऊपरी पतली परत को मृदा कहते हैं। मृदा पारितंत्र का एक महत्वपूर्ण घटक है। यह सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण प्राकृतिक नवीकरणीय संसाधन है।
मृदा का निर्माण एक लंबी अवधी में पूर्ण होती है जो एक जटिल प्रक्रिया है। कुछ सेंटीमीटर गहरी मृदा के निर्माण में लाखों वर्ष लग जाते हैं। चट्टानों के टूटने-फूटने तथा भौतिक, रासायनिक और जैविक परिवर्तनों से मृदा निर्माण होता है। भूगोलविद् इसे अत्यंत धीमी प्रक्रिया मानते हैं।
मृदा निर्माण के कारक
उच्चावच या धराकृति
मूल शैल या चट्टान
जलवायु
वनस्पति
जैव पदार्थ
खनिज कण
समय

तापमान परिवर्तन, प्रवाहित जल की क्रिया, पवन, हिमनद और अपघटन की अन्य क्रियाएँ भी ऐसे तŸव हैं, जो मृदा निर्माण में सहयोग करती हैं।

मृदा के प्रकार एवं वितरण :

मृदा निर्माण की प्रक्रिया के निर्धारक तŸव, उनके रंग-गठन, गहराई, आयु व रासायनिक और भौतिक गुणों के आधार पर भारत की मृदा के छः प्रकार होते हैं।
1. जलोढ़ मृदा
यह मृदा भारत में विस्तृत रूप में फैली हुई सर्वाधिक महŸवपूर्ण मृदा है। उत्तर भारत का मैदान पूर्ण रूप से जलोढ़ निर्मित है, जो हिमालय की तीन महत्वपूर्ण नदी प्रणालियों सिंधु, गंगा और बह्मपुत्र द्वारा लाए गए जलोढ़ के निक्षेप से बना है।
कुल मिलाकर भारत के लगभग 6.4 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र पर जलोढ़ मृदा फैली हुई है।

जलोढ़ मिट्टी का गठन बालू, सिल्ट एवं मृत्तिका के विभिन्न अनुपात से होता है। इसका रंग धुँधला से लेकर लालिमा लिये भूरे रंग का होता है।
ऐसी मृदाएँ पर्वतीय क्षेत्र में बने मैदानों में आमतौर पर मिलती हैं। आयु के आधार पर जलोढ़ मृदा के दो प्रकार हैं- पुराना एवं नवीन जलोढ़।
पुराने जलोढ़ में कंकड़ एवं बजरी की मात्रा अधिक होती है। इसे बांगर कहते हैं। यह ज्यादा उपजाऊ नहीं होते हैं।
बांगर की तुलना में नवीन जलोढ़ में महीन कण पाये जाते हैं, जिसे खादर कहा जाता है। खादर में बालू एवं मृत्तिका का मिश्रण होता है। ये काफी उपजाऊ होते हैं।

उत्तर बिहार में बालू प्रधान जलोढ़ को ‘दियारा भूमि‘ कहते हैं। यह मक्का की कृषि के लिए विश्व प्रसिद्ध है।
जलोढ़ मृदा में पोटाश, फास्फोरस और चूना जैसे तŸवों की प्रधानता होती है, जबकि नाइट्रोजन एवं जैव पदार्थों की कमी रहती है। यह मिट्टी गन्ना, चावल, गेहूँ, मक्का, दलहन जैसी फसलों के लिए उपयुक्त मानी जाती है।

अधिक उपजाऊ होने के कारण इस मिट्टी पर गहन कृषि की जाती है। जिसके कारण यहाँ जनसंख्या घनत्व अधिक होता है।

Prakritik Sansadhan Class 10 Notes

2. काली मृदाः
इस मिट्टी का रंग काला होता है जो इसमें उपस्थित एल्युमीनियम एवं लौह यौगिक के कारण है। यह कपास की खेती के लिए सर्वाधिक उपयुक्त मानी जाती है। जिस कारण इसे ‘काली कपास मृदा‘ के नाम से भी जाना जाता है।
इस मिट्टी की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें नमी धारण करने की क्षमता अत्यधिक होती है। यह मृदा कैल्शियम कोर्बोनेट, मैग्नीशियम, पोटाश और चूना जैसे पौष्टिक तŸवों से परिपूर्ण होती है। इसमें फास्फोरस की कमी होती है।

3. लाल एवं पीली मृदा :
इस मृदा में लोहा के अंश होने के कारण लाल होता है। जलयोजन के पश्चात यह मृदा पीले रंग की हो जाती है। जैव पदार्थों की कमी के कारण यह मृदा जलोढ़ एवं काली मृदा की अपेक्षा कम उपजाऊ होती है। इस मृदा में सिंचाई की व्यवस्था कर चावल, ज्वार-बाजरा, मक्का, मूंगफली, तम्बाकू और फलों का उत्पादन किया जा सकता है।

4. लैटेराइट मृदा :
इस प्रकार की मिट्टी का विकास उच्च तापमान एवं अत्यधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में हुआ है। इस मृदा में ह्यूमस की मात्रा नगण्य होती है। यह मिट्टी कठोर होती है। अल्युमीनियम और लोहे के ऑक्साइड के कारण इसका रंग लाला होता है।

कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में मृदा संरक्षण तकनीक के सहारे चाय एवं कहवा का उत्पादन किया जाता है। तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और केरल में इस मृदा में काजू की खेती उपयुक्त मानी जाती है।

5. मरूस्थलीय मृदा :
इस मृदा का रंग लाल या हल्का भूरा होता है। इस प्रकार की मृदा में वनस्पति और उर्वरक का अभाव पाया जाता है। किन्तु, सिंचाई की व्यवस्था कर कपास, चावल, गेहूँ का भी उत्पादन किया जा सकता है।

6. पर्वतीय मृदा :
पर्वतीय मृदा प्रायः पर्वतीय और पहाड़ी क्षेत्रों में देखने को मिलती है। यह मृदा अम्लीय और ह्यूमस रहित होते हैं। इस मृदा पर ढ़ालानों पर फलों के बगान एवं नदी-घाटी में चावल एवं आलू का लगभग सभी क्षेत्रों में उत्पादन किया जाता है।
भूमि उपयोग का बदलता स्वरूप

भूमि उपयोग के निम्नलिखित वर्ग हैं-
(क) वन विस्तार
(ख) कृषि अयोग्य बंजर भूमि
(ग) गैर-कृषि कार्य में संलग्न भूमि जैसे इमारत, सड़क, उद्योग इत्यादि।
(घ) स्थायी चारागाह एवं गोचर भूमि
(ङ) बाग-बगीचे एवं उपवन में संलग्न भूमि।
(च) कृषि योग्य बंजर भूमि, जिसका प्रयोग पाँच वर्षों से नहीं हुआ है।
(छ) वर्तमान परती भूमि।
(ज) वर्तमान परती के अतिरिक्त वह परती भूमि जहाँ 5 वर्षों से खेती नहीं हुई हो।
(झ) शुद्ध बोयी गयी भूमि।

भारत में भू-उपयोग के स्वरूप
भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र 32.8 लाख वर्ग किमी के मात्र 93 प्रतिशत भाग का ही भूमि-उपयोग का आँकड़ा उपलब्ध है। जम्मू-कश्मीर में पाक-अधिकृत तथा चीन अधिकृत भूमि का भू-उपयोग सर्वेक्षण नहीं हुआ है।
भारत पशुधन के मामले में विश्व के अग्रणी देशों में शामिल किया जाता है। किन्तु, यहाँ स्थाई चारागाह के लिए बहुत कम भूमि उपलब्ध है जो पशुधन के लिए पर्याप्त नहीं है जिसके कारण पशुपालन पर प्रतिकुल प्रभाव पड़ता है।
पंजाब और हरियाणा में कुल भूमि के 80 प्रतिशत भाग पर खेती की जाती है जबकि अरूणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर एवं अंडमान निकोबार द्वीप समूह में 10 प्रतिशत से कम क्षेत्र में खेती की जाती है।
किसी भी देश में पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने के लिए उसके कुल भू-भाग का 33 प्रतिशत वन होना चाहिए। लेकिन भारत में आज भी मात्र 20 प्रतिशत भू-भाग पर ही वनों का विस्तार है जो पर्यावरण के लिए हानिकारक है।

भू-क्षरण और भू-संरक्षण
मृदा को अपने स्थान से विविध क्रियाओं द्वारा स्थानांतरित होना भू-क्षरण कहलाता है। गतिशीत-जल, पवन, हिमानी और सामुद्रिक लहरों द्वारा भू-क्षरण होता है। तीव्र वर्षा से भी मृदा का कटाव होता है।
भमि निम्नीकरण- वह प्रक्रिया जिसमें भूमि खेती के अयोग्य बनती है, उसे भूमि निम्नीकरण कहते हैं। वनोन्मूलन, अति-पशुचारण, खनन, रसायनों का अत्यधिक उपयोग के कारण भूमि निम्नीकरण होता है।

उड़ीसा वनोन्मूलन के कारण भूमि-निम्नीकरण का शिकार हुआ है। गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में अत्यधिक पशुचारण के कारण भूमि निम्नीकरण हुआ है। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अधिक सिंचाई के कारण भूमि निम्नीकरण हुआ है। अधिक सिंचाई से जलाक्रांतता की समस्या पैदा होती है जिससे मृदा में लवणीय और क्षारीय गुण बढ़ जाती है जो भूमि के निम्नीकरण के लिए उत्तरदायी होते हैं।

भूमि निम्नीकरण आधुनिक मानव सभ्यता के लिए एक विकट समस्या है, इसका संरक्षण आवश्यक है।
गेहूँ, कपास, मक्का, आलू आदि के लगातार उगाने से मृदा में ह्रास होता है। इसलिए तिलहन-दलहन पौधे लगाने से मृदा में उर्वरा शक्ति वापस लौट आती है।

पहाड़ी क्षेत्रों में समोच्च जुताई द्वारा मृदा अपरदन को रोका जा सकता है। पवन अपरदन वाले क्षेत्रों में पट्टिका कृषि से मृदा अपरदन को रोका जा सकता है। रसायन का उचित उपयोग कर मृदा संरक्षण को रोका जा सकता है। रसायनों के लगातार उपयोग से मृदा के पोषक तŸवों में कमी होने लगती है। ये पोषक तव जल, वायु, केंचुआ और अन्य शूक्ष्म जीव हो सकते हैं।

एंड्रीन नामक रसायन मेढ़क के प्रजनन पर रोक लगा देता है जिससे कीटों की संख्या बढ़ जाती है जिसके कारण फसलों की हानि होती है। रासायनिक उर्वरक की जगह जैविक खाद का उपयोग कर मृदा क्षरण को रोका जा सकता है।

मृदा क्षरण को रोकने के लिए वृक्षा रोपण महत्वपूर्ण है। वृक्ष के पियों से प्राप्त ह्युमस मृदा की गुणवत्ता को बढ़ाते हैं।

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