Bihar Board Class 9 Hindi पद (Pad Class 9th Hindi Solutions)Text Book Questions and Answers
1. पद
लेखक – रैदास
कैसे छूटै राम नाम रट लागी ।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग-अंग बास समानी ।
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा ।
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती ।
प्रभु जी, तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सुहागा ।
प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा ।
अर्थ-रैदास ईश्वर के प्रति अपनी आस्था प्रकट करते हुए कहते हैं कि हे प्रभु, तुमसे मेरा नाता कैसे टूट सकता है, क्योंकि तुम चंदन हो और मैं पानी । इन दोनों के आपसी संयोग से मेरा अंग-अंग सुगंधित हो गया है। तुम मँडराते बादल हो तो मैं वन में विचरण करने वाला मोर अर्थात् जिस प्रकार बादल देखकर मोर वन में नाचने लगता है, उसी प्रकार तुम्हारे स्मरण से मेरा मन-मयूर नाच उठता है । हे प्रभु, यदि तुम दीपक हो तो मैं बाती हूँ। अर्थात् जिस प्रकार दीपक के जलते ही घर प्रकाशित हो जाता है, उसी प्रकार तुम्हारे नामरूपी ज्योति से मेरा अन्तर मन प्रकाशित हो गया है। इसी प्रकार यदि तुम मोती हो तो मैं धागा हूँ अर्थात् मैं तुम में ही समाया हुआ हूँ। तुम सोना हो तो मैं सुहागा हूँ अर्थात् जैसे सुहागा सोना में मिलकर अपना अस्तित्व खो देता है, उसी प्रकार मैं तुम में मिलकर या पाकर अस्तित्वहीन हो गया हूँ। अतः तुम मेरे स्वामी हो और मैं तुम्हारा सेवक (दास) हूँ। इस प्रकार की भक्ति रविदास करते हैं।
व्याख्या—प्रस्तुत पद निर्गुण भक्ति धारा के संत कवि रैदास द्वारा विरचित है। इसमें कवि ने विभिन्न उपादानों के माध्यम से भक्त और भगवान के संबंधों का वर्णन किया है।
कवि का कहना है कि भक्त एवं भगवान में अन्योन्याश्रय संबंध है, इन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता, क्योंकि भगवान का सान्निध्य पाकर ही भक्त जीवन-मरण के बंधन से मुक्ति पाता है। इसीलिए कवि ने ईश्वर को चन्दन, बादल, चन्द्रमा, दीपक तथा मोती कहकर यह दर्शाने का प्रयास किया है कि जैसे चन्दन का संयोग पाकर पानी चंदन के समान सुगंधित हो जाता है, वैसे ही भगवान का सान्निध्य पाकर भक्त का जीवन सुगंधमय हो जाता है। जैसे बादल को देखकर मोर नाचने लगता है, वैसे ही ईश्वर के दर्शन मात्र से भक्त का मन-मयूर प्रफुल्ल हो जाता है। अतः कवि ने अपने लिए पानी, मोर, चकोर, बाती तथा धागा उपमानों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि आत्मा और परमात्मा में अनन्य संबंध है। आत्मा परमात्मा का ही अंश है, इसलिए आत्मा जब परमात्मा में एकाकार अर्थात् मिल जाती है, तब भक्त और भगवान के बीच कोई भेद नहीं रह जाता। रैदास ने दास्य भाव से ईश्वर की भक्ति की है। ये मूलतः संत कवि हैं। इनकी भाषा सरल, सरस तथा सहज है।
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राम मैं पूजा कहाँ चढ़ाऊँ।फल. अरु मूल अनूप न पाऊँ ॥
थनहर दूध जो बछरू जुठारी।पुहुप भँवर जल मीन बिगारी ॥
मलयागिरी बेधियो भुअंगा।विष. अमृत दोऊ एकै संगा ॥
मन ही पूजा मन ही धूप। मन ही सेॐ सहज सरूप ॥
पूजा अरचा न जानूं तेरी । कह रैदास कवन गति मेरी॥
अर्थ–कवि रैदास का कहना है कि हे प्रभु, मैं तुम्हारी पूजा किस प्रकार करू, क्योंकि अनूठे फल एवं कंद-मूल का अभाव है, गाय के थन का दूध जूठा है, भौरों ने फूलों को तथा मछलियों ने जल को विकृत कर दिया है। मलयपर्वत से अमृततुल्य हवा चंदन पेड़ से लिपटे साँप के कारण विषतुल्य हैं । अर्थात् साँप के कारण चंदन विषाक्त हो गया है । इसलिए शुद्ध मन से तुम्हारी आराधना करना चाहता हूँ। अर्थात् पूजा-अर्चना जैसे बाह्याडंबर में न पड़कर मन-ही-मन तुम्हारा नाम स्मरण करके तुम्हारा स्वरूप अपने हृदय में बसाना चाहता हूँ।
व्याख्या—प्रस्तुत पद निर्गुण भक्तिधारा के संत कवि रैदास द्वारा लिखित है। इसमें कवि ने निर्गुण भक्ति की महत्ता पर प्रकाश डालता है।कवि का कहना है कि पूजा-अर्चना दिखावा है, सगुण भक्ति तथा कर्मकांड निरर्थक हैं, क्योंकि ईश्वर किसी चढ़ावे से प्रसन्न नहीं होता। ईश्वर तो सच्चे दिल की पुकार अथवा आंतरिक पूजा से प्रसन्न होता है। कवि प्रभु से आत्म-निवेदन करते हुए कहता है कि तुम्हारी पूजा किन चीजों से करूँ | मेरे पास न तो अनजूठे फल तथा कंद-मूल है, और न गाय का अन जूठा दूध है, भौरे ने फूल का रस चूसकर उसे रसहीन बना दिया है तो मछली ने जल को दूषित कर दिया है। साँप ने चन्दन को छेदकर विषैला बना दिया है अर्थात् साँप के लिपटे रहने के कारण चन्दन विष युक्त हो गया है इसलिए सच्चे मन से तुम्हारा स्मरण कर तुम्हें अपने हृदय में बसाकर उस अद्भुत छवि को निहारता हूँ। कवि ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहता है कि हे प्रभु । तुम्हारी पूजा-अर्चना की विधि का ज्ञान नहीं है, इसलिए मेरी कौन-सी गति होगी। कवि के कहने का तात्पर्य है कि उसे सांसारिक बाह्याडंबर से कोई लेना-देना नहीं है, कवि को प्रभु के नाम स्मरण का भरोसा है।
अभ्यास के प्रश्न और उनके उत्तर
कविता के साथ :
प्रश्न 1. रैदास ईश्वर की कैसी भक्ति करते हैं?
उत्तर- रैदास ईश्वर की भक्ति दास्य भाव से करते हैं ।
प्रश्न 2. कवि ने ‘अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी’ क्यों कहा है?
उत्तर— कवि ने ‘अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी’ इसलिए कहा है, क्योंकि उसके रग-रग में प्रभु का नाम उसी प्रकार मिला हुआ है जैसे चंदन पानी में मिल जाता है । तात्पर्य कि आत्मा जब परमात्मा में समाहित हो जाती है तब ईश्वर से उसका अलग अस्तित्व नहीं रहता है ।
प्रश्न 3. कवि ने भगवान और भक्त की तुलना किन-किन चीजों से की है ?
उत्तर—कवि ने भगवान की तुलना चन्दन, बादल, चंद्रमा, दीपक, मोती एवं सोना से की है तो भक्त की तुलना पानी, मोर, चकोर, बाती, धागा तथा सुहाना से की है
प्रश्न 4. कवि ने अपने ईश्वर को किन-किन नामों से पुकारा है?
उत्तर—कवि ने अपने ईश्वर को राम, चंदन, घन, चंद्रमा, दीपक, मोती, स्वामी आदि नामों से पुकारा है।
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प्रश्न 5. कविता का केन्द्रीय भाव क्या है ?
उत्तर – कविता का केन्द्रीय भाव निर्गुण भक्ति की सार्थकता तथा सगुण भक्ति और कर्मकांड की निरर्थकता सिद्ध करना है । कवि के अनुसार मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा तथा पूजा- अर्चना सभी दिखावें हैं । ईश्वर किसी मंदिर या मस्जिद में नहीं विराजता बल्कि व्यक्ति के अंतस् में विद्यमान रहता है। इसलिए सारे बाह्याडंबर का त्याग कर सच्चे मन से प्रभु का स्मरण करना चाहिए । अर्थात् आत्मदर्शन से ही परमात्मा के दर्शन या उसकी प्राप्तिं हो जाती है।
प्रश्न 6. पहले पद की प्रत्येक पंक्ति के अंत में तुकांत शब्दों के प्रयोग से नाद-सौन्दर्य आ गया है, यथा-पानी- समानी, मोरा-चकोरा । इस पद के अन्य तुकान्त शब्द छाँटकर लिखें ।
उत्तर – पहले पद के अन्य तुकान्त निम्नलिखित हैं- बाती राती, धागा-सुहागा तथा दासा- रैदासा ।
प्रश्न 7. ” मलयगिरि बेधियो भुअंगा । विष अमृत दोऊ एकै संगा ।” इस पंक्ति का आशय स्पष्ट करें ।
उत्तर- प्रस्तुत पंक्ति के माध्यम से कवि यह स्पष्ट करना चाहता है कि संसार विष के समान है तथा राम का नाम अमृत जैसा। दोनों की क्रियाएँ एक साथ चलती है। अर्थात् दोनों मन के साथ समान रूप में विचरण करता है । कवि ने भुजंग की तुलना संसार से की है तथा मलयागिरि की तुलना राम के नाम से । तात्पर्य कि विष तथा अमृत दोनों का जन्म समुद्र से ही हुआ है लेकिन विष की अपनी खास विशेषता है जिसे कोई नहीं चाहता ।
प्रश्न 8. निम्नलिखित पंक्तियों का भाव स्पष्ट कीजिए :
(क) जाकी अँग-अँग बांस समानी ।
उत्तर – कवि के कहने का भाव है कि जैसे चंदन का संयोग पाकर पानी सुगंधमय हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्य जैसे-जैसे ईश्वर चिंतन में डूबता जाता है, उसकी आत्मा में परमात्मा की सुगंध भरती जाती है। अर्थात् सांसारिक विषय-वासनाओं से उसके संबंध टूटते जाने के कारण उसका चित्त निर्मल होता जाता है ।
(ख) जैसे चितवत चंद चकोरा ।
उत्तर— कवि ने चंद्रमा एवं चकोर के माध्यम से अपने एवं भगवान के बीच अनन्य संबंध दर्शाना चाहता है । अर्थात् कवि का चकोर मन चन्द्रमारूपी राम के नाम का जाप करते हुए भाव विभोर हो जाता है। जैसे चकोर चाँद की श्वेत चाँदनी देखकर विह्वल होता है, वैसे ही कवि भी ईश्वर के आभास मात्र से विह्वल हो जाता है ।
(ग) धनहर दूध जो बछरू जुठारी ।
उत्तर – कवि के कहने का भाव है कि गाय का दूध अति पवित्र माना गया है किंतु वह दूध बछड़ा द्वारा जुठाया रहता है। ऐसी स्थिति में प्रभु की आराधना सच्चे मन से करना ही श्रेयस्कर है । इसलिए पूजा-अर्चना के लिए कर्मकांड में न पड़कर निराकार प्रभु की उपासना ही अच्छी है ।
प्रश्न 9. रैदास अपने स्वामी राम की पूजा में कैसी असमर्थता जाहिर करते हैं?
उत्तर—कवि रैदास का कहना है कि उनके पास न तो अन जूठे फल तथा न ही कंद- मूल है जिसका चढ़ावा वह प्रभु को चढ़ावे । गाय का थन भी बछड़े द्वारा जुठाया हुआ है, साथ ही, कवि को पूजा-अर्चना का सम्यक् ज्ञान भी नहीं है । इस प्रकार स्वामी राम की पूजा में अपनी असमर्थता जाहिर करते हुए मन-ही-मन पूजा करता है ।
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प्रश्न 10. कवि अपने मन को चकोर की भँति क्यों कहता है ?
उत्तर— कवि अपने मन को चकोर की भाँति इसलिए कहता है क्योंकि चकोर चाँद क़ी चाँदनी चुगकर प्रसन्न होता है, कवि का मन भी राम का नाम लेकर शांति का अनुभव करता है। चकोर चाँद को देखकर विह्वल हो उठता है तो कवि का मन प्रभु के दर्शन मात्र. से बेसुध हो जाता है ।
प्रश्न 11. रैदास के राम का परिचय दीजिए ।
उत्तर- रैदास के राम शरीर धारी राम नहीं हैं। इनका राम अलख, अगोचरः अनादि, अजन्मा, अनंत, सर्वव्यापी तथा घट-घट अर्थात् हर मनुष्य के हृदय में निवास करने वाले आत्मारूपी राम हैं । अतः रैदास के राम निर्गुण रूपधारी हैं ।
प्रश्न 12. ‘मन ही पूजा मन ही धूप । मन ही सेऊँ सहज सरूप । ‘ का भाव स्पष्ट करें ।
उत्तर—प्रस्तुत पंक्ति द्वारा कवि रैदास यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा, पूजा-पाठ, कर्मकांड ये सारे बाह्याडंबर हैं । ईश्वर का निवास न तो किसी मंदिर में होता है और न किसी मस्जिद में ही है। ईश्वर तो मनुष्य के अंतस में आत्मा के रूप में सदा विद्यमान रहता है । इसलिए कवि उसी आत्मा को परखने तथा अपने हृदय में ईश्वर के स्वरूप को स्थापित करना चाहता है । अतः कवि के कहने का भाव है कि ईश्वर की पूजा अपने अन्तर में करनी चाहिए, क्योंकि ईश्वर निर्गुण है, सगुण नहीं ।
प्रश्न 13. रैदास की भक्ति भावना का परिचय दीजिए ।
उत्तर – रैदास निर्गुण भक्ति-धारा के कवि हैं । इन्होंने ईश्वर के निर्गुण-निराकार रूप को ही स्वीकार किया है। इनका मानना है कि तीर्थयात्रा, पूजा-पाठ, कर्मकांड ये सभी बाहरी दिखावें हैं । आत्मा की पूजा ही सच्ची पूजा है । इन्होंने भक्तिमार्ग में गुरु की महत्ता स्वीकार करते हुए कहा है कि गुरू भगवान से भी बढ़कर होते हैं, क्योंकि गुरू के सद्ज्ञान से ही भक्त ईश्वर तक पहुँचने में समर्थ होता है ।
रैदास के लिए ईश्वर चंदन, बादल, चन्दमा और दीपक हैं तथा रैदास स्वयं चन्दन में मिले पानी, बादल रूपी ईश्वर को देखकर नाचनेवाले मोर तथा ईश्वर स्वरूप चन्द्रमा को देखकर विह्वल होने वाले चकोर हैं । कवि दीपक में बाती हैं और ईश्वर की ज्योति से प्रकाशमान है। ईश्वर यदि माला है तो वह धागा हैं । उसका अस्तित्व ईश्वर में उसी प्रकार मिला हुआ है जैसे सोने में सुहागा, फिर कवि अपने को दास या सेवक तथा ईश्वर को स्वामी बनाकर ईश्वर के साथ अपना अन्योन्याश्रय संबंध स्थापित करता है ।
प्रश्न 14. पठित पद के आधार पर निर्गुण-भक्ति की विशेषताएँ बताइए ।
उत्तर—पठित पद के आधार पर निर्गुण-भक्ति की विशेषताएँ इस प्रकार हैं— निर्गुण-भक्ति में बाह्य-पूजा अर्थात् तीर्थाटन, मूर्तिपूजा, पूजा-पाठ अथवा किसी प्रकार के कर्मकाण्ड निरर्थक माने जाते हैं, क्योंकि ईश्वर किसी मंदिर या मस्जिद में कैद नहीं रहता है । वह तो प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है । वह हर प्राणी के हृदय में विराजमान है। कोई सच्चे मन से अपने दिल में डूबकी लगाता है तो उसकी आत्मा परमात्मा रूपी प्रकाश से आलोकित हो उठती है । अतः निर्गुण-भक्ति की खास विशेषता है कि इसमें मन की अर्थात् आत्मा की पूजा ही ईश्वर की पूजा मानी जाती है।
प्रश्न 15. ‘जाकी जोति बरै दिन राती’ को स्पष्ट करें ।
उत्तर—कवि का कहना है कि हे प्रभु । आपके प्रेम में मैं दिन-रात जलता रहता हूँ। आपकी ज्योति से ही मेरा अन्तर प्रकाशित है । कवि के कहने का तात्पर्य है कि सारा संसार तुम्हारे ही प्रकाश से प्रकाशित है। तुम्हारा ही प्रकाश पाकर व्यक्ति जीवन-मरण के बंधन से मुक्त होता है ।
प्रश्न 16. भक्त कवि ने अपने आराध्य के समक्ष अपने-आपको दीन-दीन माना है । क्यों ?
उत्तर—कवि ने अपने आराध्य के समक्ष अपने-आपको दीन-हीन इसलिए माना है क्योंकि ईश्वर सर्वशक्तिमान् शाश्वत्, चिन्मय, अजर, अमर तथा जगत् का स्वामी है, जबकि उसका दास कवि हर दृष्टि से निर्बल, मरणशील तथा अज्ञानी है। दूसरी बात यह है कि सेवक के लिए उसका स्वामी उसकी आस्था, श्रद्धा एवं स्नेह का केन्द्र होता है तथा सेवक अपनी दीनता, अपना आत्मनिवेदन एवं लाचारी प्रकट कर अपने स्वामी का कृपा- पात्र बनने का प्रयास करता है। क्योंकि ईश्वर दीनों के नाथ तथा कृपा के सिंधु हैं ।
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प्रश्न 17. ‘पूजा अरचा न जानूँ तेरी’ कहने के बावजूद कवि अपनी प्रार्थना क्षमा-याचना के रूप में करते हैं। क्यों ?
उत्तर— ‘पूजा अरचा न जानूँ तेरी’ कहने के बावजूद कवि अपनी प्रार्थना क्षमा-याचना के रूप में इसलिए करता है क्योंकि कवि चाहता है कि उसकी प्रार्थना में आत्मनिवेदन तथा दीनता का भाव रहे, ताकि उसका काव्य पाठक के हृदय को उद्वेलित कर सके । साथ ही, उसकी सहज – भक्ति में दंभ या अहंकार लेश मात्र भी नहीं रहे ।
नोट : पाठ के आस-पास के प्रश्नों के उत्तर छात्र स्वयं तैयार करें ।
भाषा की बात (व्याकरण संबंधी प्रश्न एवं उत्तर ) :
प्रश्न 1. पहले पद में कुछ शब्द अर्थ की दृष्टि से परस्पर संबद्ध हैं । ऐसे शब्दों को छाँटकर लिखिए- यथा: दीपक-बाती ।
उत्तर—चंदन – पानी, घन – मोरा, चंद – चकोरा, मोती – धागा, सोना – सुहागा तथा स्वामी – दासा ।
प्रश्न 2. निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखें :
उत्तर :
शब्द पर्यायवाची शब्द
पानी जल, अम्बु, नीर, वारि, आप
चंद्रमा शशि, विधु, निशाकर, चाँद
रात निशि, रात्रि, निशा, विभा, प्रदोष
मीन मछली, मत्स्य
भुअंग साँप, भुजंग, विषधर, नाग, वासुकि
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