1. लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी
इस अध्याय में यह जानने की कोशिश करेंगे कि सामाजिक विषमता के कारण लोकतंत्र में द्वंद्व में तत्त्व किस प्रकार अंर्तनिहित है? जातीय एवं सांप्रदायिक विविधता लोकतंत्र को किस प्रकार प्रभावित करता है ? लिंग भेद के आधार पर लोकतांत्रिक व्यवहार किस प्रकार परिवर्तित होता है ? किस तरह लोकतंत्र सारी सामाजिक विभिन्नताओं, अंतरों और असमानताओं के बीच सामंजस्य बैठाकर उनका सर्वमान्य समाधान देने की कोशिश करता है ?
लोकतंत्र में द्वन्द्ववाद
लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में लोग ही शासन के केन्द्र बिन्दु होते हैं। लोकतंत्र ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें लोगों के लिए एवं लोगों के द्वारा ही शासन चलाया जाता है।
द्वन्द्ववाद का अर्थ- बातचीत या तर्क-वितर्क करना।
लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सामाजिक विभाजन के स्वरूप-लोकतांत्रिक व्यवस्था में सामाजिक विभाजन अलग-अलग स्वरूप तथा भेदभाव के विरोध का अलग-अलग तरीके होते हैं।
क्षेत्रीय भावना के आधार पर सामाजिक बंटवारा और भेदभाव तथा विरोध और संघर्ष की शुरूआत होती हैं। मुंबई, दिल्ली, कोलकाता में उत्तर भारत के बिहारी और उत्तर प्रदेश के लोगों के विरूद्ध हिंसात्मक व्यवहार इसका उदाहरण हैं। अमेरिका में नस्ल या रंग के आधार पर होता हैं और श्रीलंका में भाषा और क्षेत्र दोनों आधार पर होता हैं।
भारत में सामाजिक विभाजन भाषा, क्षेत्र, संस्कृति, धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर होता हैं।
सामाजिक भेदभाव एवं विविधता की उत्पति व्यक्ति को समुदाय या जाति का चुनाव करना उसके बस की बात नहीं हैं। कोई व्यक्ति जन्म के कारण ही किसी समुदाय का सदस्य बन जाता हैं।
दलित परिवार में जन्म लेनेवाला बच्चा उस समुदाय का सदस्य हो जाता हैं। स्त्री पुरूष, काला, गोरा, लम्बा-नाटा आदि जन्म का परिणाम हैं।
सामाजिक विभाजन जन्म आधारित नही होते हैं। बल्कि कुछ हम अपने इच्छा से भी चुनते हैं। जैसे कोई व्यक्ति अपने इच्छा से धर्म परिवर्तन कर लेता हैं। कुछ व्यक्ति नास्तिक बन जाता हैं।
एक ही परिवार के कई लोग किसान, सरकारी सेवक, व्यापारी, वकील आदि पेशा अपनाते हैं। जिसके कारण उनका समुदाय अलग हो जाता हैं तथा समुदायां के हित साधना एक-दूसरे के विपरित भी हो सकती हैं।
सामाजिक विभिन्नता और सामाजिक विभाजन में अंतर कोई आवश्यक नही हैं कि सभी सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का आधार होता हैं। संभव हो भिन्न समुदायों के विचार भिन्न हो सकते हैं। परन्तु हित सामान होगा जैसे मुंबई में मराठियों के हिंसा का शिकार व्यक्तियों की जातियाँ भिन्न थी, धर्म भिन्न होंगें, लिंग भिन्न हो सकता हैं। परन्तु उनका क्षेत्र एक ही था। वे सभी एक ही क्षेत्र उत्तर भारतीय थे। उनका हित समान था। वे सभी अपने व्यवसाय और पेशा में संलग्न थे। इस कारण सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप नहीं ले पाता।
सामाजिक विभिन्नता का अर्थ हैं कि एक समुह के लोग अपने जाति, धर्म, भाषा, सभ्यता के कारण भिन्न-भिन्न होते हैं।
सामाजिक विभाजन एवं विभिन्नता में बहुत बड़ा अंतर हैं- सामाजिक विभाजन तब होता हैं जब कुछ सामाजिक अंतर दुसरी अनेक विभिन्नताओं सें ऊपर और बड़े हो जाते हैं। स्वर्णों और दलितों का अंतर एक सामाजिक विभाजन हैं। क्योंकि दलित सम्पूर्ण देश में आमतौर पर गरीब, वंचित एवं बेसहारा हैं और भेदभाव का शिकार है जबकि स्वर्ण आमतौर पर सम्पन्न एवं सुविधायुक्त हैं। अर्थात दलितों को यह महसुस होने लगता हैं कि वे दुसरे समुदाय के है। जब एक तरह का सामाजिक अंतर अन्य अंतरों से ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाता है और लोगों को यह महसुस होने लगता है कि वे दुसरे समुदाय के हैं तो इससे सामाजिक विभाजन कि स्थिति पैदा होती है। अमेरिका में श्वेत और अश्वेत का अंतर सामाजिक विभाजन हैं।
सामाजिक विभाजन में जाति राजनीति में सामाजिक विभाजन के सकारात्मक और नाकारात्मक दोनों पहलू की महता है। जाति व्यवस्था राजनीति में कई तरह की भूमिका निभाती हैं।
एक तरफ राजनीति मे जातीय विभिन्नताएँ और असमानताएँ वंचित और कमजोर समुदायों के लिए अपनी बातें आगे बढ़ाने और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी माँगने की गुँजाइस भी पैदा करती हैं। तो दूसरी ओर सिर्फ जाति पर जोर देना नुकसानदेह होता हैं।
राजनीति में जाति
राजनीति में जातियों का अनेक पहलु होते हैं। जैसे-
- निर्वाचन के वक्त पार्टी उसी जाति के अभ्यर्थी को टिकट देती है, जिसकी जातियों की संख्या अधिक होती है ताकि चुनाव जीतने के लिए जरूरी वोट उसे मिल सके।
- राजनीतिक पार्टीयाँ चुनाव जीतने के लिए जातिगत भावना भड़काने की कोशिश करता है।
- दलित और नीची जातियों का महत्त्व भी निर्वाचन के वक्त बढ़ जाता है।
चुनाव की जातियता में ह्रास की प्रवृति
राजनीति में यह धारणा बन जाती हैं कि चुनाव और कुछ नहीं बल्कि जातियों का खेल हैं। परन्तु ऐसी बात नहीं है। राजनीति में अनेक अवधारनाएँ भी महत्तवपूर्ण होती हैं।
- निर्वाचन क्षेत्र का गठन इस प्रकार नहीं किया गया है कि उसमें मात्र एक जाति के मतदाता रहे। इसलिए चुनाव जीतने के लिए हर पार्टी एक या एक से अधिक जाति के लोगों का भरोसा हासिल करना चाहता है।
- ऐसा संभव नहीं होता है कि कोई पार्टी केवल एक ही जाति का वोट हासिल कर सत्ता में आ सकता है।
- अगर जातीय भावना स्थायी होता, तो जातीय गोलबंद पर सत्ता में आनेवाली पार्टी की कभी हार नहीं होती। क्षेत्रीय पार्टियाँ भले ही जातीय गुटों से संबंध बनाकर आ जाए, परन्तु अखिल भारतीय चेहरा पाने के लिए जाति विहिन, साम्प्रदायिकता के परे विचार रखना आवश्यक होगा।
ऊपर लिखे गए बातों से स्पष्ट होता है कि राजनीति में जाति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, परन्तु दूसरे कारक भी असरदार होता है।
सांप्रदायिकता
राजनीति में धर्म समस्या के रूप में निम्नलिखित कारणों से खड़ी हो जाती है-
- धर्म को राष्ट्र का आधार मान लिया जाता है।
- राजनीति में धर्म की अभिव्यक्ति एक समुदाय विशिष्ठता के लिए की जाती है।
- राजनीति किसी धर्म विशेष दावे को स्पोर्ट करने लगती है।
- किसी धर्म विशेष के अनुयायी दूसरे धर्म के मानने वाले लागों के लिए मोर्चा खोल देता है। एक धर्म के विचारों का दूसरे धर्म से श्रेष्ठ माना जाने लगता है। जिससे दो धार्मिक समुदायों के बीच तनाव शुरू हो जाता है।
राजनीति में धर्म को इस तरह इस्तेमाल करना ही सांप्रदायिकता कहलाता है।
सांप्रायिकता की परिभाषा- जब हम यह कहने लगते हैं कि धर्म ही समुदाय का निर्माण करती है तो साम्प्रदायिक राजनीति जन्म लेती है और इस अवधारणा पर आधारित सोच ही सांप्रदायिकता है।
राजनीति में सांप्रदायिकता का स्वरूप-
- सांप्रदायिकता का सोच प्रायः अपने धार्मिक समुदाय का प्रमुख राजनीति में बरकरार रखना चाहता है। जो लोग बहुसंख्यक समुदाय के होते हैं उसकी कोशिश बहुसंख्यकवाद के रूप ले लेती है। जैसे श्रीलंका के सिंहलियों का बहुसंख्यकवाद। वहाँ की निर्वाचित सरकार ने सिंहली समुदाय की प्रभुता कायम करने के लिए कई कदम उठाए। उदाहरण के लिए 1956 में सिंहली एकमात्र राजभाषा के रूप में घोषित करना, विश्वविद्यालय और सरकारी नौकरियों में सिंहलियों को प्राथमिकता देना, बौद्ध धर्म के संरक्षण हेतु कई कदम उठाना आदि।
- सांप्रदायिकता के आधार पर राजनीति गोलबंदी सांप्रदायिकता का दूसरा रूप है। इसके लिए पवित्र प्रतीकों, धर्म गुरुओं और भावनात्मक अपील आदि का सहारा निर्वाचन के वक्त लिया जाता है। किसी खास धर्म के अनुयायियों से किसी पार्टी विशेष के पक्ष में मतदान करने की अपील कराई जाती है।
- सांप्रदायिकता का भयावह रूप तब देखते हैं, जब संप्रदाय के आधार पर हिंसा, दंगा और नरसंहार होता है।
धर्मनिरपेक्ष शासन की अवधारणा
हमारे समाज में धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना हेतु अनेक उपाय किये गए हैं-
- हमारे देश में किसी भी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। श्रीलंका में बौद्ध धर्म, पाकिस्तान में इस्लाम और इंगलैंड में इसाई धर्म का दर्जा मिला हुआ है, लेकिन इसके विपरित भारत का संविधान किसी भी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता।
- भारत के संविधान में प्रत्येक नागरिक को यह स्वतंत्रता दी गई है कि वह अपने विश्वास से किसी भी धर्म को स्वीकार कर सकता है। प्रत्येक धर्म के मानने वालों को अपने धर्म का पालन करने अथवा शांतिपूर्ण ढ़ंग से प्रचार करने का अधिकार है।
- हमारे संविधान के अनुसार धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव असंवैधानिक घोषित है।
लैंगिक मसले और राजनीति
लैंगिक असमानता सामाजिक असमानता का एक महत्वपूर्ण रूप है। लैंगिक असमानता सामाजिक संरचना के हर क्षेत्र में दिखाई पड़ता है।
लड़के और लड़कियों के पालन-पोषण के क्रम में ही परिवार में यह भावना घर कर जाती है कि भविष्य में लड़कियों की मुख्य जिम्मेवारी गृहस्थी चलाने और बच्चों का पालन-पोषण तक ही सीमित होती है। उनका काम खाना बनाना, कपड़ा साफ करना, सिलाई-कड़ाई करना तथा बच्चों का पालन-पोषण आदि है। अगर वहीं मर्द घर के अंदर इन सभी कार्यों को करता है, तो उस पर समाज में छीटाकसी की जाती है।
आधुनिक दौड़ में महिलाएँ जीवन के हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। भारत कृषि प्रधान देश है और यहाँ के लोगों के आजीविका का मुख्य आधार कृषि है। किसान शब्द का जब उच्चारण किया जात है तो लोगों के दिमाग में पुरूष का चेहरा उभर कर आता है। जबकि सच्चाई यह है कि कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी पुरूषों की तुलना में कम नहीं है। कृषि क्षेत्र में महिलाओं का योगदान बढ़ा हुआ है। इन बातों की पुष्टी निम्नलिखित आँकड़ों से होती है-
- कृषि कार्य क्षेत्र में महिलाओं की कुल भागीदारी 40 प्रतिशत है।
- कुल पुरूष कामगारों में 53 प्रतिशत पुरूष और महिला कामगारों में 73 प्रतिशत महिलाएँ कृषि क्षेत्र में है।
- ग्रामीण महिला कामगारों में 85 प्रतिशत महिला कृषि से जुड़ी हुई है।
भारत की कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी कम नहीं है, परन्तु दुख की बात यह है कि कृषि क्षेत्र में शामिल महिलाओं को पुरूषों की तुलना में कम मजदूरी दिया जाता है।
मनुष्य जाति के आबादी में औरतों का हिस्सा आधा है पर सार्वजनिक जीवन में खासकर राजनीति में इनकी भूमिका ना के बराबर है।
पहले पुरुषों को ही सार्वजनिक मामलों में भागीदारी करने, वोट देने या सार्वजनिक पदों के लिए चुनाव लड़ने की अनुमति थी। धीरे-धीरे राजनीति में मुद्दे उठे और महिलाओं को भी सार्वजनिक जीवन में अवसर प्राप्त होने लगा।
सर्वप्रथम इंगलैंड में 1918 में महिलाओं को वोट देने का अधिकार प्राप्त हुआ। उसके बाद धीरे-धीरे अन्य लोकतांत्रिक देशों में भी महिलाओं को वोट देने का अधिकार प्राप्त होने लगा। आज प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति को देखा जा सकता है।
यूरोपीय देशों में महिलाओं की भागीदारी सार्वजनिक तौर पर काफी ऊँचा है। भारत में अभी भी उतना संतोषजनक नहीं है। भारत का समाज अभी भी पुरुष-प्रधान है। औरतों के साथ कई तरह के भेद-भाव होते हैं।
महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व-औरतों के प्रति समाज में घटिया नजरिया के कारण ही महिला आंदोलन की शुरूआत होने लगी। महिला आंदोलन की मुख्य माँगों में इनकी सत्ता में भागीदारी सर्वोपरी माँग थी।
औरतों ने सोचना शुरू कर दिया कि जब तक महिलाओं की सत्ता में भागीदारी नहीं होगी तब तक इस समस्या का निबटारा नहीं होगा।
भारत के लोकसभा में महिलाओं की संख्या 59 हो गई है जो कुल सीट का 11 प्रतिशत है। ग्रेट ब्रिटेन में 19.3 प्रतिशत तथा अमेरिका में 16.3 प्रतिशत महिला प्रतिनिधि है। विकसित देशों में भी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी संतोषजनक नहीं है। राजनीति मे महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाना लोकतंत्र के लिए शुभ होता है।
- लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी Subjective Questions
प्रश्न 1. हर सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप नहीं लेती। कैसे ?
उत्तर- कोई आवश्यक नहीं कि सभी सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का आधार होता है। विभिन्न समुदायों के विचार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं किंतु उनका ही समान होगा। उदाहरणार्थ मुंबई में मराठीयों के हिंसा का शिकार व्यक्तियों की जातियां भिन्न थी। धर्म भिन्न होंगे लिंग भिन्न हो सकता है किंतु उनका क्षेत्र एक ही था वह सभी एक ही क्षेत्र के उत्तर भारतीय थे। उनका हित सामान था और वे सभी अपने व्यवसाय और पेशा में संलग्न थे। इस कारण सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का रूप नहीं ले पाता।
प्रश्न 2. सामाजिक अंतर कब और कैसे सामाजिक विभाजन का रूप ले लेते हैं ?
उत्तर- जब एक तरह का सामाजिक अंतर अन्य अंतरों से ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाता है और लोगों को यह महसूस होने लगता है कि वह दूसरे समुदाय के हैं तो इससे सामाजिक विभाजन की स्थिति पैदा होती है। इसलिए सामाजिक अंतर सामाजिक विभाजनों का रूप ले लेते हैं
प्रश्न 3. सामाजिक विभाजनों की राजनीति के परिणामस्वरूप ही लोकतंत्र के व्यवहार में परिवर्तन होता है। भारतीय लोकतंत्र के संदर्भ में इसे स्पष्ट करें।
उत्तर- सामाजिक विभाजन की राजनीति का परिणाम सरकार के रूप पर निर्भर करता है अगर भारत में पिछड़ों एवं दलितों के न्याय की मांग को सरकार शुरू से ही खारिज करती रहती तो आज भारत बिखराव के कगार पर होता लेकिन सरकार उनके सामाजिक न्याय को उचित मानते हुए सत्ता में साझेदारी बनाया और उन्हें मुख्यधारा में जोड़ने का ईमानदारी से प्रयास किया। लोग शांतिपूर्ण और संवैधानिक तरीके से अपनी मांग को उठाते हैं और चुनावों के माध्यम से उनके लिए दबाव बनाते हैं और उनका समाधान पाने का प्रयास करते हैं।
प्रश्न 4. 70 के दशक से आधुनिक दशक के बीच भारतीय लोकतंत्र का सफर (सामाजिक न्याय के संदर्भ में) का संक्षिप्त वर्णन करें
उत्तर- 70 के दशक से पूर्व भारत की राजनीति अवचेतना सुविधापस्त हित समूह के बीच झूलती रही। दूसरे शब्दों में कहें तो 1967 तक राजनीति में स्वर्ण जातियों का बर्चस्व रहा। 70 से 90 के दशक के बीच सवर्ण और मध्यम पिछड़ी जातियों में सत्ता कब्जा के लिए संघर्ष चलता रहा। भारतीय राजनीति में महामंथन में पिछड़े और दलितों का संघर्ष प्रभावी रहा। आधुनिक दशक के वर्षों में राजनीति का पलड़ा दलितों और महादलितों के पक्ष में झुकता दिखाई पड़ रहा है। सरकार की नीतियों के सभी परिदृश्यों में दलित न्याय की पहचान सबके लिए केंद्र बिंदु का विषय बन गया है।
प्रश्न 5. सामाजिक विभाजनों की राजनीति का परिणाम किन- किन चीजों पर निर्भर करता है?
उत्तर- सामाजिक विभाजन की राजनीति का परिणाम निम्नलिखित चीजों पर निर्भर करता है।
- लोग अपनी पहचान स्व-अस्तित्व तक ही सीमित रखना चाहते हैं क्योंकि प्रत्येक मनुष्य में राष्ट्रीय चेतना के अलावा स्थानीय चेतना भी होते हैं कोई एक चेतना बाकी चेतनाओं की कीमत पर उग्र होने लगती है तो समाज में असंतुलन पैदा हो जाता है।
- दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है कि किसी समुदाय या क्षेत्र विशेष की मांगों को राजनीतिक दल कैसे उठाते हैं। संविधान के दायरे में आनेवाली और दूसरे समुदाय को नुकसान न पहुंचाने वाली मांगों को मान लेना आसान है।
- सामाजिक विभाजन की राजनीति का परिणाम सरकार के रूप पर भी निर्भर करता है। यह भी महत्वपूर्ण है कि सरकार इन मांगों पर क्यों प्रतिक्रिया व्यक्त करती है। अगर भारत सरकार सामाजिक न्याय को उचित नहीं मानती तो आज भारत का विखंडन हो गया होता।
प्रश्न 6. सामाजिक विभाजनों को संभालने के संदर्भ में इनमें से कौन-सा बयान लोकतांत्रिक व्यवस्था पर लागू नहीं होता?
(क) लोकतंत्र राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के चलते सामाजिक विभाजनों की छाया (reflection) राजनीति पर भी पड़ता है।
(ख) लोकतंत्र में विभिन्न समुदायों के लिए शांतिपूर्ण ढंग से अपनी शिकायतें जाहिर करना संभव है।
(ग) लोकतंत्र सामाजिक विभाजनों को हल (accomodate) करने का सबसे अच्छा तरीका है।
(घ) लोकतंत्र सामाजिक विभाजनों के आधार पर (on the basis of social division) समाज विखण्डन (disintegration) की ओर ले जाता है।
उत्तर- (क) लोकतंत्र राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के चलते सामाजिक विभाजनों की छाया (reflection) राजनीति पर भी पड़ता है।
प्रश्न 7. निम्नलिखित तीन बयानों पर विचार करें
(क) जहाँ सामाजिक अन्तर एक दूसरे से टकराते हैं (Social differences overlaps), वहाँ सामाजिक विभाजन होता है।
(ख) यह संभव है एक व्यक्ति की कई पहचान (multiple indentities) हो।
(ग) सिर्फ भारत जैसे बड़े देशों में ही सामाजिक विभाजन होते हैं।
इन बयानों में स कौन-कौन से बयान सही हैं?
(अ) क, ख और ग
(ब) क और ख
(स) ख और ग
(द) सिर्फ ग
उत्तर- (ब) क और ख
प्रश्न 8. निम्नलिखित व्यक्तियों में कौन लोकतंत्र में रंगभेद के विरोधी नहीं थे?
(क) किंग मार्टिन लूथर
(ख) महात्मा गांधी
(ग) ओलंपिक धावक टोमी स्मिथ एवं जॉन कॉलेंस
(घ) जेड गुडी
उत्तर- (ग) ओलंपिक धावक टोमी स्मिथ एवं जॉन कॉलेंस
प्रश्न 9. निम्नलिखित का मिलान करें
(क) पाकिस्तान
(अ) धर्मनिरपेक्ष
(ख) हिन्दुस्तान
(ब) इस्लाम
(ग) इंग्लैंड
(स) प्रोस्टेंट
उत्तर- (क) (ब), (ख) (अ), (ग) (स)
प्रश्न 10. भावी समाज में लोकतंत्र का जिम्मेवारी और उदेश्य पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर- लोकतंत्र ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें लोगों के लिए एवं लोगों के द्वारा ही शासन चलाया जाता है। शासन में लोक प्रतिनिधी लोगों के हित तथा उनकी इच्छा को सर्वोपरि महत्व देना चाहते हैं। लोकतंत्र सारी सामाजिक विभिन्नताओ अंतरों और असमानताओं के बीच बैठाकर उनका सर्वमान्य समाधान देने की कोशिश करता है।
प्रश्न 11. भारत में किस तरह जातिगत असमानताएं जारी है? स्पष्ट करें।
उत्तर- भारत में सामाजिक असमानता और श्रम विभाजन पर आधारित समुदाय विद्यमान है। भारत इससे अछूता नहीं है। भारत की तरह दूसरे देशों में भी पेशा का आधार वंशानुगत है। पेशा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्वयं चला आता है। पेशा पर आधारित सामुदायिक व्यवस्था ही जाति कहलाता है। श्रम विभाजन का अतिवादी रूप सामाजिक विभाजन कहलाता है या एक खास अर्थ में समाज में दूसरे समुदाय से भिन्न हो जाता है। इस प्रकार के वंशानुगत पेशा पर आधारित समुदाय जिसे हम जाति कहते हैं की स्वीकृति रीति रिवाज से भी हो जाती है। इनकी बेटे-बेटियों की शादी आपस के समुदाय ही होता है तथा खान-पान भी समान समुदाय में ही होता है
प्रश्न 12. क्यों सिर्फ जाति के आधार पर भारत में चुनावी नतीजे नहीं हो सकते ? इसके दो कारण बताएं।
उत्तर- सिर्फ जाति के आधार पर भारत में चुनावी नतीजों के दो कारण निम्नलिखित है।
(1) किसी भी निर्वाचन क्षेत्र का गठन इस प्रकार नहीं किया जाता है कि उसमें मात्र एक जाति के मतदान रहे। ऐसा हो सकता है कि एक जाति के मतदान की संख्या अधिक हो सकती है। दूसरे जाति के मतदाता भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं। हर पार्टी एक या एक से अधिक जाति के लोगों का भरोसा हासिल करना चाहता है।
(2) यह भी कहना ठीक नहीं होगा कि कोई पार्टी विशेष केवल एक ही जाति का वोट हासिल कर सता में आता है। जब लोग किसी जाति विशेष को किसी एक पार्टी का वोट बैंक कहते हैं। तो इसका मतलब यह होता है कि उस पार्टी के ज्यादातर लोग उसी पार्टी को वोट देते हैं
प्रश्न 13. विभिन्न तरह के सांप्रदायिक राजनीति का ब्यौरा दें और सब के साथ एक-एक उदाहरण दें।
उत्तर- जब हम यह कहना शुरू करते हैं कि धर्म ही समुदाय का निर्माण करती है तो सांप्रदायिक राजनीति जन्म लेने लगती है और इस अवधारणा पर आधारित सोच ही सांप्रदायिकता है।
(1) सांप्रदायिकता की सोच: अपने धार्मिक समुदाय का प्रमुख राजनीति में बरकरार रखना चाहता है जो लोग बहुसंख्यक समुदाय के होते हैं उनकी यह कोशिश बहुसंख्यकवाद का रूप ले लेती है। उदाहरण के लिए श्रीलंका में सिंहलियों का बहुसंख्यकवाद यहां लोकतांत्रिक रूप से सरकार ने भी सिंहली समुदाय की प्रभुता कायम करने के लिए अपने बहुसंख्यक परस्ती के तहत कई कदम उठाए। यथा 1956 में सिंहली को एकमात्र राजभाषा के रूप में घोषित करना। विश्वविद्यालय और सरकारी नौकरियों में सिंहलियो को प्राथमिकता देना। बौद्ध धर्म के संरक्षण के लिए कई कदम उठाना आदि।
(2) सांप्रदायिक के आधार पर राजनीति के गोलबंदी सांप्रदायिकता का दूसरा रूप है। इस हेतु पवित्र प्रतिकों धर्मगुरुओं और भावनात्मक अपील आदि का सहारा लिया जाता है निर्वाचन के वक्त हम अक्सर ऐसा देखते हैं। किसी खास धर्म के अनुयायियों से किसी पार्टी विशेष के पक्ष में मतदान करने की अपील कराई जाती है
और अंत में सांप्रदायिकता का भयावह रूप तब हम देखते हैं जब संप्रदाय के आधार पर हिंसा, दंगा और नरसंहार होता है। विभाजन के समय हमने इस त्रासदी को झेला है। आजादी के बाद भी कई जगहों पर बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा हुई है।
प्रश्न 14. जीवन के विभिन्न पहलुओं का जिक्र करें। जिसमें भारत में स्त्रियों के साथ भेदभाव है या वे कमजोर स्थिति में हैं।
उत्तर- लड़के और लड़कियों के पालन पोषण के क्रम में ही परिवार में यह भावना घर कर जाती है कि भविष्य में लड़कियों के मुख्य जिम्मेवारी गृहस्थी चलाने और बच्चों का पालन पोषण तक ही सीमित होती है। उनका काम खाना बनाना, कपड़ा साफ करना, सिलाई-कढ़ाई करना और बच्चे का पालन पोषण आदि। आधुनिक दौर में महिलाएं जीवन के हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। भारत कृषि प्रधान देश है और यहां के लोगों के आजीविका का मुख्य स्रोत कृषि है। 1991 और 2001 जनगणना के बीते दशक में कृषि क्षेत्र में महिलाओं की संख्या में वृद्धि हुई है। धीरे-धीरे राजनीति में मुद्दे उठे और महिलाओं को भी सार्वजनिक जीवन में अवसर प्राप्त होने लगा। सर्वप्रथम इंग्लैंड में सन 1918 में महिलाओं को वोट का अधिकार मिला।
भारत में तस्वीर अभी भी उतना संतोषजनक नहीं है। हमारा समाज अभी भी पितृ प्रधान है। औरतों के साथ भी कई तरह के भेदभाव होते हैं। इस बात का संकेत निम्न तथ्यों से मिलता है।
(1) महिलाओं में साक्षरता की दर अभी मात्र 54% है जबकि पुरुषों में 76% यद्यपि स्कूली शिक्षा में कई जगह लड़कियां अव्वल रही है फिर भी उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाली लड़कियों का प्रतिशत बहुत ही कम है।
(2) शिक्षा में लड़कियों के इसी पिछड़ेपन के कारण अभी ऊंचे तनख्वाह वाले और ऊंचे पदों पर पहुंचने वाली महिलाओं की संख्या बहुत ही कम है।
(3) यद्यपि एक सर्वेक्षण के अनुसार एक औरत औसत रोजाना साढे सात घंटे से ज्यादा काम करती है जबकि एक मर्द स्थान रोज छ: घंटा ही काम करता है। फिर भी पुरुषों द्वारा किया गया काम ही ज्यादा दिखाई पड़ता है क्योंकि उसे आमदनी होती है।
(4) लैंगिक पूर्वाग्रह का काला पक्ष बड़ा दुखदाई है जब भारत के अनेक हिस्से में मां बाप को सिर्फ लड़के की चाह होती है। लड़की को जन्म देने से पहले हत्या कर देने की प्रवृत्ति इसी मानसिकता का परिणाम है।
प्रश्न 15. भारत की विधायिकाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की स्थिति क्या है ?
उत्तर- औरतों के प्रति समाज की घटिया नजरिया के कारण ही आंदोलन की शुरुआत होने लगी। महिला आंदोलन की मुख्य मांगों में सत्ता में भागीदारी की मांग सर्वोपरि रही। औरतों ने सोचना शुरू कर दिया कि जब तक औरतों का सत्ता पर नियंत्रण नहीं होगा तब तक इस समस्या का निपटारा नहीं होगा। भारत के लोकसभा में महिला प्रतिनिधियों की संख्या 59 हो गई है। इसका प्रतिशत 11% के नीचे ही है। ग्रेट ब्रिटेन में 19.3% महिला प्रतिनिधि है तो संयुक्त राज्य अमेरिका इनका 16.3% है। महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ना लोकतंत्र के लिए शुभ है।
प्रश्न 16. किन्ही दो प्रावधानों का जिक्र करें जो भारत को धर्मनिरपेक्ष देश बनाता है।
उत्तर- हमारे संविधान में धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना हेतु निम्न प्रावधान किए गए हैं।
(1) भारत में किसी भी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। श्रीलंका में बौद्ध धर्म, पाकिस्तान में इस्लाम और ब्रिटेन में ईसाई धर्म को दर्जा दिया गया है। किंतु भारत का संविधान किसी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता है।
(2) संविधान में हर नागरिक को यह स्वतंत्रता दी गई है कि अपने विश्वास से वह किसी भी धर्म को अंगीकार कर सकता है। इस आधार पर उसे किसी अवसर से वंचित नहीं किया जा सकता है।
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