3. जीवों में विविधता
वर्गीकरण- जीवों की विविधता के अध्ययन को सहज करने के लिए हम उनकी समानताओं और विषमताओं के आधार पर उन्हें विभिन्न समूहों में बाँटते हैं, जिसे वर्गीकरण कहते हैं।
जीवविज्ञान की वह शाखा जिसमें जीवों का सुव्यवस्थित और क्रमानुसार विभिन्न समूहों में विभाजन, उनका जैविक नामकरण तथा उससे संबंधित सिद्धांत का अध्ययन किया जाता है। उसे वर्गिकी या वर्गीकरण विज्ञान या टैक्सोनोमी कहते हैं।
सबसे पहले कैरोलस लिन्नियस ने अठारहवीं शताब्दी में वर्गिकी या टैक्सोनॉमी की स्थापना की, अतः इन्हें वर्गिकी के जनक कहा जाता है।
आर० व्हिटर ने 1969 में सभी जीवधारीओं को पाँच जगत में विभाजित किया। जो निम्नलिखित है-
1. जगत मोनेरा
2. जगत प्रोटिस्टा
3.जगत फंजाई
4. जगत प्लांटी
5. जगत एनिमेलिया
मोनेरा- इस जगत में सबसे प्राचीन, सरल तथा प्रोकैरियोटिग सूक्ष्मजीवों को सामिल किया गया है। जैसे- जीवाणु, नील-हरित शैवाल या सायनोबैक्टीरिया, माइकोप्लाज्मा आदि। यह सभी जगह होते हैं।
प्रोटिस्टा- इस जगत में विभिन्न प्रकार के जलिय, एककोशिकीय, सरल, यूकैरियोटिक सूक्ष्मजीवों को सामिल किया गया है। यह मोनेरा और प्लांटी, फंजाई तथा एनिमेलिया के बीच कड़ी का काम करता है। जैसे- डायटम, यूग्लीना, अमीबा, पैरामीशियम आदि।
फंजाई- इस जगत में उन बहुकोशिकीय यूकैरियोटिक बहुकोशिकीय जीवों को सम्मिलित किया गया है जो पौधे तो हैं लेकिन इनमें क्लोरोफिल वर्णक नहीं पाया जाता है। यह अपना भोजन स्वयं तैयार नहीं कर सकते हैं। इस जगत में कवक को रखा जाता है। कुछ कवक के उदाहरण है- मशरूम, म्यूकर, पेनिसिलियम आदि।
प्लांटी- इस जगत में यूकैरियोटिक, प्रकाशसंश्लेषी, बहुकोशिकीय तथा कोशिकाभित्तिवाले जीवों को सम्मिलित किया गया है। इनमें जलीय और स्थलीय दोनों प्रकार के पौधे आते हैं। इस जगत में कुछ शैवाल तथा पेड़-पौधे आते हैं।
एनिमेलिया- इस जगत में सभी यूकैरियोटिक, बहुकोशिकीय जीवों को रखा जाता है। इनके कोशिकाओं में कोशिकाभित्ति नहीं होती है। इसमें क्लोरोफिल वर्णक नहीं पाए जाते हैं। यह स्वतः भोजन नहीं बना सकते हैं।
प्लांटी या पादप जगत
आइकलर ने 1883 में पादप जगत को दो उपजगतों में बाँटा- क्रिप्टोगैम्स (अपुष्पोद्भिक) एवं फैनरोगैम्स (पुष्पोद्भिक)
अपुष्पोदभिक- इन पौधों में कभी भी फल, फूल नहीं उगता है, ये छोटे आकार के पौधे होते है, इन्हें तीन भागों में बाँटा गया है।
(क) थैलोफाइटा
(ख) ब्रायोफाइटा
(ग) टेरिडोफाइटा
थैलोफाइटा- थैलोफाइटा पादप जगत का सबसे बड़ा समुह है। इसमें जड़, तना तथा पत्ता का विभाजन नहीं होता है। इसे चार भागों में बाँटा गया है-
कवक, शैवाल, लाइकेन और जीवाणु
कवक- यह नमी वाले क्षेत्र में उगते हैं। जहाँ प्रकाश कम रहता है।
इसमें क्लोरोफिल नहीं पाया जाता है, यह हरा नहीं होते हैं। यह भोजन के लिए मृतजीवों पर आश्रित रहते हैं। इसमें मृतजीवी पोषण पाया जाता है। यह भोजन के लिए सड़े-गले चीझों पर निर्भर रहते हैं।
कवक के कई प्रकार होते हैं। जैसे- मशरूम, पेनीशिलियम, यीस्ट आदि।
शैवाल- पादप जगत का यह सबसे सरल जलीय जीव है, जो प्रकाशसंश्लेषण द्वारा भोजन ग्रहण करता है।
कुछ शैवाल एककोशिकीय (क्लेइडोमोनस) तथा कुछ शैवाल बहुकोशिकीय (स्पाइरोगाइरा) होते हैं।
लाइकेन- यह शैवाल और कवक के बीच की कड़ी है। यह मुख्य रूप से पेड़ों की छालों, पत्थरों तथा पुराने दीवारों पर रंगीन (धूसर-हरा) धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं।
जीवाणु- जीवाणु का खोज एंटोनीवान लिउवेनहोएक ने किया था। इसलिए इन्हें जीवाणु विज्ञान के पिता कहा जाता है। इसमें केन्द्रक का अभाव होता है। बैक्टीरिया द्वारा चर्म उद्योग में चर्म शोधन में किया जाता है। जैसे- राइजोबियम, एनाविना आदि।
ब्रायोफाइटा- इस विभाग के पौधे भूमि पर नम और छायादार स्थानों पर उगते हैं। इन्हें पादप वर्ग का उभयचर कहते हैं।
अधिकांश पौधे हरे और छोटे होते हैं।
इनमें जाइलम तथा फ्लोएम नहीं पाए जाते हैं।
इसके कुछ उदाहरण रिक्सिया, मॉस, मार्केंशिया है।
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टेरिडोफाइटा- इनमें जाइलम तथा फ्लोएम ऊतक पाए जाते हैं। इनका शरीर जड़, तना और पत्तियों में विभाजित होता है।
यह छायादार या नम स्थानों पर पाए जाते हैं।
इन पौधों में बीज नहीं बनता है।
सभी फर्न इसके उदाहरण है। इनमें बड़ी-बड़ी पत्तियाँ होती हैं।
फैनरोगैम्स (पुष्पोद्भिक)
पुष्पोद्भिक दो प्रकार के होते हैं-
1. अनावृत बीजीय या जिम्नोस्पर्म और 2. आवृत बीजीय या एंजियोस्पर्म
1. अनावृतबीजी या जिम्नोस्पर्म- इसमें बीज फलों के भीतर नहीं बनते हैं। बीजों के बाहर फलों के कई आवरण होते हैं। ऐसे बीजों को नग्नबीजी भी कहा जाता है। इनमें फूल का अभाव होता है।
यह बहुवर्षी, सदाबहार एवं काष्ठीय होते हैं।
इनमें नर और मादा पौधे अलग-अलग होते हैं।
इस प्रकार के पौधों में जड़ें, तना एवं पत्तियाँ विकसित होती है।
साइकस, पाइनस, देवदार, सिकोया, चीड़ आदि इसके उदाहरण है।
2. आवृत बीजीय या एंजियोस्पर्म- इनके बीज के बाहर फल के आवरण पाया जाता है।
यह पादप जगत का सबसे बड़ा समूह है।
इसमें बीज हमेशा फल के भीतर ही पाए जाते हैं।
समस्त प्रकार के अनाज, दालें, तेल, फल, सब्जियाँ इन्हीं पौधों से प्राप्त होती है।
यह दो प्रकार के होते हैं-
एकबीजपत्री- इनके बीज का केवल एक पत्र होते हैं। अर्थात इनके बीज को दो बराबर भागों में नहीं बाँट सकते हैं। इनकी पत्तियाँ समांतर शिरा-विन्यास होता है।
जैसे- धान, केला, घास, बाँस, नारियल, ईख, गेहूँ आदि।
द्विबीजपत्री- इनके बीजों में दो बीजपत्र होते हैं। अर्थात इन्हें आसानी से दो बराबर भागों में बाँट सकते हैं।
इनकी पत्तियों में जालिकावत शिराविन्यास रहता है।
आम, लीची, बरगद, कटहल, जामुन, मुँगफली, चना आदि इसके उदाहरण है।
एनिमेलिया या जंतु जगत
जंतु जगत की प्रमुख विशेषताएँ-
1. यह बहुकोशिकीय तथा यूकैरियोटिक होते है।
2. यह परपोषी होते हैं। इनमें क्लोरोफील नहीं पाया जाता है।
3. यह प्रायः चलायमान होते हैं।
4. उच्च श्रेणी के जंतुओं में तंत्रिका तंत्र पाए जाते हैं।
जंतु जगत का वर्गीकरण का स्वरूप
जीव-जंतुओं को पहले संघ (फाइलम) में रखते हैं। संघ को उपसंघ तथा उपसंघ को वर्ग (क्लास) में बाँटते हैं।
संघ 1. पॉरिफेरा-
यह बहुकोशिकीय जंतु हैं।
इनमें से अधिकांश समुद्र में पाए जाते हैं।
शरीर में ऊतक नहीं होते हैं।
इनका शरीर बाह्यकंकाल से ढँका होता है।
इन जीवों के शरीर में असंख्य छिद्र होते हैं।
ये द्विलिंगी होते हैं।
जैसे- हाइड्रा, स्पंजिला,साइकन, मूँगा, जैलीफिश आदि।
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संघ 2. सीलेंटरेटा या नाइडेरिया-
यह जलीय तथा अधिकांश समुद्री होते हैं। शरीर की कोशिकाएँ ऊतक स्तर पर विकसित होती है। इस संघ मे पहली बार ही ऊतक का निर्माण हुआ।
अलग-अलग कार्यों के लिए अलग-अलग कोशिकाएँ होती है।
यह मुकुलन द्वारा अलैंगिक प्रजनन करते हैं।
जैसे- हाइड्रा, कोरल, समुद्री ऐनीमोन आदि।
संघ 3. प्लेटीहेल्मिन्थीज-
यह परजीवी होते हैं। प्लेनेरिया स्वतंत्रजीवी होते हैं।
इनके शरीर में देहगुहा नहीं रहता है।
श्वसन अंग, कंकालतंत्र, रूधिर परिवहन तंत्र विकसित नहीं होते हैं।
यह उभयलिंगी होते हैं अर्थात एक ही शरीर में नर और मादा दोनों जननांग पाए जाते हैं।
जैसे- प्लेनेरिया, टीनिया, सिस्टोसोमा, फीताकृमि आदि।
संघ 4. एस्केल्मिन्थीज-
इनका शरीर अखंडित, बेलनाकार तथा द्विपार्श्व सममित होता है।
यह एकलिंगी होते हैं। अर्थात नर और मादा जनन अंग अलग-अलग शरीर में पाए जाते हैं।
यह परजीवी होते हैं और अपने पोषकों में रोग उत्पन्न करते हैं। फाइलेरिया रोग वूचेरेरिया गोलकृमि के कारण होता है।
जैसे- वूचेरेरिया, एस्केरिस, हुकवर्म
संघ 5. एनीलिडा-
यह स्थल एवं जल दोनों जगह पाए जाते हैं।
ये एकलिंगी एवं उभयलिंगी दोनों प्रकार के होते हैं।
इनके अंगतंत्र विकसित एवं सुव्यवस्थित होते हैं। इनमें पाचन तंत्र, श्वसन तंत्र, बंद रक्त परिवहन तंत्र, उत्सर्जन तंत्र पाए जाते हैं।
नेरीज, समुद्री चुहा, केंचुआ, जोंक आदि।
संघ 6. आर्थ्रोपोडा-
यह जंतु जगत का सबसे बड़ा संघ है। जंतुओं के संपूर्ण संख्या के 75 प्रतिशत इसी संघ के सदस्य हैं।
ये जल (मृदुजलीय एवं समुद्री) तथा स्थल के सभी प्रकार के वासस्थानों में पाए जाते हैं।
संपूर्ण शरीर कठोर बाह्य कंकाल द्वारा घिरा रहता है।
देहगुहा में रक्त भरा होता है।
आहारनाल पूर्ण होता है।
इनमें खुला रक्त परिसंचरण तंत्र होता है।
ये एक लिंगी होते है।
श्वसन गिल्स, ट्रैकिया द्वारा होता है।
जैसे- झींगा, केकड़ा, तिलचट्टा, मच्छर, मक्खी, गोजर, बिच्छू, भृंग आदि।
संघ 7. मोलस्का-
इस संघ के जीव के बाहरी कवच कठोर होता है जो कैल्सियम कार्बोनेट का बना होता है।
इनके शरीर के सभी अंग इसके कवच के अंदर सूरक्षित रहता है।
रक्त परिसंचरण तंत्र खुला होता है।
देहगुहा छोटी होती है।
यह अर्थ्रोपोडा के बाद सबसे बड़ा फालम या संघ है।
जैसे- काईटन, घोंघा, सीप, ऑक्टोपस, सीपिया।
संघ 8. इकाइनोइर्मेटा-
इस संघ के जंतु समुद्री होते हैं।
देहगुहा विकसित होती है।
इनके त्वचा के ऊपर जहाँ-तहाँ कांटे निकले होते हैं।
इसमें एक विशेष प्रकार का जल-परिवहन तंत्र होता है, जो प्रचलन तथा श्वसन में सहायक होता है। यह एकलिंगी होते हैं।
जैसे- तारा मछली, ब्रिटॅलस्टार, सी अर्चिन, समुद्री खीरा आदि।
संघ 9. प्रोटोकॉर्डेटा- इस संघ के जंतुओं में रीढ़ की हड्डी उपस्थित होता है।
इस संघ के एक उपसंघ हेमीकॉर्डेटा में नोटोकॉर्ड यानी रीढ़ की हड्डी नहीं होता है।, परंतु तंत्रिका रज्जु उपस्थित होता है।
नयी पद्धति के अनुसार हेमीकार्डेटा को एक स्वतंत्र संघ के रूप में मान्यता दी गई है।
जैसे- बैलैनोग्लोलस, हर्डमैनिया आदि।
संघ 10. कार्डेटा- यह जल एवं स्थल दोनों में पाए जाते हैं।
इनमें रीढ़ की हड्डी होती है।
रूधिर परिसंचरण तंत्र बंद होता है, अर्थात रक्त का प्रवाह बंद रक्त नलिकाओं में होता है।
इस संघ के जीव में नोटोकॉर्ड या पृष्ठरज्जु उपस्थित होता है। आगे चलकर यह कशेरूक दंड या रीढ़ की हड्डी में परिवर्तित हो जाता है।
इस संघ के जीवों में पूँछ पाया जाता है।
इनमें पाचन, श्वसन इत्यादि पूर्ण विकसित होता है।
कार्डेटा का उपसंघ वर्टिब्रेटा है। पून: उपसंघ वर्टिब्रेटा को पाँच वर्गों में बाँटा गया है।
वर्ग 1. मत्स्य या पीसीज
इसके अंतर्गत मछलियाँ आती हैं।
इनकी त्वचा शल्कों से ढकी होती है।
इनमें तैरने के लिए पंख तथा मांसल पूँछ होते हैं।
इनमें श्वसन क्लोम या गिल्स की सहायता से होते हैं।
इनके हृदय में दो वेश्म या कक्ष होते हैं।
ये अनियततापी या असमतापी होते हैं। अर्थात, वातावरण के तापक्रम के अनुसार इनके शरीर का तापमान बदलते रहता है।
ये जल में अंडे देते हैं।
जैसे- इलेक्ट्रिक रे, स्टिंग रे, कतला, रोहू, एनाबस, समुद्री घोड़ा।
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वर्ग 2. एम्फिबिया
यह जल एवं स्थल दोनों पर निवास करने में सक्षम होते हैं। इसलिए ये उभयचर कहलाते हैं।
यह अनियततापी होते हैं।
श्वसन त्वचा, गिल्स और फेफड़े द्वारा होता है।
अंतःकंकाल अस्थि का बना होता है।
हृदय में तीन कक्ष या वेश्म होते हैं। दो अलिंद और एक निलय।
बाह्य निषेचन होता है।
जैसे- मेढ़क, टोडद्व धात्री दादुर, हायला, नेक्ट्यूरस, सैलामेंडर
वर्ग 3. रेप्टीलिया
यह साधारणतः स्थलवासी, लेकिन कुछ जलवासी भी होते हैं।
यह रेंगकर चलते हैं।
यह अनियततापी होते हैं।
त्वचा शुष्क होती है।
हृदय तीन वेश्म या कक्षों में बँटा होता है। मगरमच्छ का हृदय चार वेश्मों में बँटा होता है।
यह जल में अंडे ने देकर स्थल पर ही अंडे देते हैं।
जैसे- कछुआ, छिपकली, अजगर, कोब्रा आदि साँप
वर्ग 4. एवीज
इस वर्ग में पक्षी आते हैं।
यह नियततापी होते हैं। अर्थात इनका शरीर के तापमान वातावरण के अनुसार नहीं बदलता है।
शरीर परों से ढ़का होता है।
यह उड्डनशील होते हैं।
जबड़ों में दाँत नहीं होते हैं। श्वसन फेफड़ों द्वारा होता है। हृदय चार वेश्मों में बँटा होता है।
कंकाल स्पंजी तथा हलका होता है।
यह अंडे देने वाले होते हैं। इनके अंडे कठोर कवच से घिरे होते हैं।
जैसे- कबुतर, गौरैया, मयना, मोर, तोता, ऑस्ट्रिच आदि।
वर्ग 5. स्तनीधारी या स्तनी या मैमेलिया
ये नियततापी होते हैं।
त्वचा बाल या रोम से ढ़का होता है।
बाह्यकर्ण उपस्थित होता है।
इनमें स्तन पाए जाते हैं। स्तन में नवजात के पोषण के लिए दुग्ध ग्रंथियाँ भी पाई जाती है।
श्वसन फेफड़ों द्वारा होता है।
हृदय चार वेश्मों में बँटा होता है।
नोट- स्तनी का एक वर्ग इकिडना अंडा देती है।
जैसे- बतखचोंचा, कंगारू, चमगादड़, गिलहरी, खरहा, चूहा, कुत्ता, शेर, हाथी, मनुष्य आदि।
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