(ख) जल संसाधन
पृथ्वी के सतह का तीन-चौथाई भाग जल से ढ़का है। पृथ्वी के अधिकतर स्तर पर जल की उपस्तिथि के कारण ही इसे नीला ग्रह कहा जाता है।
जल श्रोत- जिस स्त्रोत से जल की प्राप्ति होती है, उसे जल स्त्रोत कहते हैं।
जल-श्रोत विभिन्न रुपों में पाये जाते हैं-
1. भू-पृष्ठीय जल, 2. भूमिगत जल, 3. वायुमंडलीय जल तथा 4. महासागरीय जल।
जल संसाधन का वितरण- अधिकांश जल दक्षिणी गोलर्द्ध में ही है। इसी कारण दक्षिणी गोलर्द्ध को ‘जल गोलार्द्ध’ और उत्तरी गोलार्द्ध को ‘स्थल गोलर्द्ध’ के नाम से जाना जाता है।
विश्व के कुल मृदु जल का लगभग 75 प्रतिशत अंटार्कटिका, ग्रीनलैंड एवं पर्वतीय क्षेत्रों में बर्फ की चादर या हिमनद के रूप में पाया जाता है और लगभग 25 % भूमिगत जल स्वच्छ जल के रूप में उपलब्ध है।
ब्रह्मपुत्र एवं गंगा विश्व की 10 बड़ी नदियों में से हैं। इन नदियों को विश्व की बड़ी नदियों में क्रमशः आठवाँ एवं दसवाँ स्थान प्राप्त है।
जल संसाधन का उपयोग- 1951 ई० में भारत में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 5177 घन मीटर थी, जो 2001 में 1829 घन मीटर प्रति व्यक्ति तक पहुंच गई है। संभावना है 2025 ई० तक पहुंचते-पहुंचते प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 1342 घन मीटर हो जाएगी।
पेयजल- घरेलू कार्य, सिंचाई, उद्योग, जन-स्वास्थ्य, स्वच्छता तथा मल-मूत्र विसर्जन इत्यादि कार्यों के लिए जल अत्यंत जरूरी है। जल-विद्युत निर्माण तथा परमाणु-संयत्र, शीतलन, मत्स्य पालन, जल-कृषि, वानिकी, जल-क्रीड़ा जैसे कार्य की कल्पना बिना जल के नहीं की जा सकती है।
बहुउद्देशीय परियोजनाएं- ऐसी परियोजनाएँ, जिसका निर्माण एक साथ कई उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है, उसे बहुउद्देशीय परियोजना कहते हैं।
बहुउद्देशीय परियोजनाओं को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने गर्व से ‘आधुनिक भारत का मंदिर’ कहा है।
बहुउद्देशीय परियोजना के विकास के उद्देश्य- बाढ़ नियंत्रण, मृदा-अपरदन पर रोक, पेय एवं सिंचाई के लिए जलापूर्ति, परिवहन, मनोरंजन, वन्य-जीव संरक्षण, मत्स्य-पालन, जल-कृषि, पर्यटन इत्यादि।
भारत में अनेक नदी-घाटी परियोजनाओं का विकास हुआ है- भाखड़ा-नांगल, हीराकुंड, दामोदर, गोदावरी, कृष्णा, स्वर्णरेखा एवं सोन परियोजना जैसी अनेक परियोजनाएं भारत के बहुअयामी विकास में सहायक हो रहे हैं।
नर्मदा बचाओ आंदोलन- ‘नर्मदा बचाओं आंदोलन’ एक गैर सरकारी संगठन है, जो स्थानीय लोगों, किसानों, पर्यावरणविदों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को गुजरात के नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध के विरोध के लिए प्रेरित करता है। इस आंदोलन के प्रवर्त्तक मेधा पाटेकर थे।
बहुउद्देशीय परियोजनाओं से होने वाली हानियाँः
(a) पर्याप्त मुआवजा न मिल पाना,
(b) विस्थापित होना,
(c) पुनर्वास की समस्या,
(d) आस-पास बाढ़ का आ जाना।
बहुउद्देशीय परियोजनाओं के कारण भूकंप की समस्या बढ़ जाती है। इतना ही नहीं, बाढ़ से जल-प्रदूषण, जल-जनित बीमारियाँ तथा फसलों में कीटाणु जनित बीमारियों का भी संक्रमण हो जाता है।
जल संकट- जल की अनुपलब्धता (कमी) को जल-संकट कहा जाता है। बढ़ती जनसंख्या, उनकी मांग तथा जल के असमान वितरण भी जल दुर्लभता का परिणाम है।
वर्त्तमान समय में भारत में कुल विद्युत का लगभग 22 प्रतिशत भाग जल-विद्युत से प्राप्त होता है।
उद्योगों की वजह से मृदु जल पर दबाव बढ़ रहा है। शहरों में बढ़ती आबादी एवं शहरी जीवन शैली के कारण जल एवं विद्युत की आवश्यकता में तेजी से वृद्धि हुई है।
जल की पर्याप्त मात्रा होने के बावजूद लोग प्यासे हैं। इस दुर्लभता का कारण है, जल की खराब गुणवत्ता, यह किसी भी राज्य या देश के लिए चिंतनीय विषय है। घरेलू एवं औद्योगिक-अवशिष्टों, रसायनों, कीटनाशकों और कृषि में प्रयुक्त होने वाले उर्वरक जल में मिल जाने से जल की गुणवत्ता बुरी तरह प्रभावित हुई है जो मानव के लिए अति नुकसानदेह है।
केवल कानपुर में 180 चमड़े के कारखानें हैं जो प्रतिदिन 58 लाख लीटर मल-जल गंगा में विसर्जित करती है।
जल संरक्षण एवं प्रबंधन की आवश्कता- जल संसाधन की सीमित आपूर्ति, तेजी से फैलते प्रदूषण एवं समय की मांग को देखते हुए जल संसाधनों का संरक्षण एवं प्रबंधन अपरिहार्य है। जिससे स्वस्थ-जीवन, खाद्यान्न-सुरक्षा, आजीविका और उत्पाद अनुक्रियाओं को सुनिश्चित किया जा सके।
जल संसाधन के दुर्लभता या संकट से निवारण के लिए सरकार ने ‘सितंबर 1987’ में ‘राष्ट्रीय जल नीति’ को स्वीकार किया।
इसके अंतर्गत सरकार ने जल संरक्षण के लिए निम्न सिद्धांतों को ध्यान में रखकर योजनाओं को बनाया गया है-
(a) जल की उपलब्धता को बनाये रखना।
(b) जल को प्रदूषित होने से बचाना।
(c) प्रदूषित जल को स्वच्छ कर उसका पुनर्चक्रण।
वर्षा जल संग्रहण एवं उसका पुनःचक्रण- जल दुर्लभता एवं उनकी निम्नीकरण वर्तमान समय की एक प्रमुख समस्या बन गई है। बहुउद्देशीय परियोजनाओं के विफल होने तथा इसके विवादास्पद होने के कारण वर्षा जल-संग्रहण एक लोकप्रिय जल संरक्षण का तरीका हो सकता है।
भूमिगत जल का 22 प्रतिशत भाग का संचय वर्षा-जल का भूमि में प्रवेश करने से होता है।
सूखे एवं अर्द्धसूखे क्षेत्रों में वर्षा-जल को एकत्रित करने के लिए गड्ढ़ो का निर्माण किया जाता था, जिससे मिट्टी सिंचित कर खेती की जा सके। उसे राजस्थान के जैसलमेंर में ‘खादीन’ तथा अन्य क्षेत्रों में ‘जोहड़’ के नाम से पुकारा जाता है। राजस्थान के बिरानो फलोदी और बाड़मेंर जैसे सूखे क्षेत्रों में पेय-जल का संचय भूमिगत टैंक में किया जाता है। जिसे ‘टांका’ कहा जाता है। मेघालय स्थित चेरापूँजी एवं मॉसिनराम में विश्व की सर्वाधिक वर्षा होती है। जहाँ पेय जलसंकट का निवारण लगभग (25 प्रतिशत) छत जल संग्रहण से होता है। मेघालय के शिलांग में छत जल संग्रहण आज भी परंपरागत रूप में प्रचलित है।
पं० राजस्थान में इंदिरा गाँधी नहर के विकास से इस क्षेत्र को बारहमासी पेयजल उपलब्ध होने के कारण से यह वर्षा जल संग्रहण की की उपेक्षा हो रही है, जो खेद जनक है।
वर्तमान में महाराष्ट्र, म०प्र०, राजस्थान एवं गुजरात सहित कई राज्यों में वर्षा जल संरक्षण एवं पुनः चक्रण किया जा रहा है।
स्वतंत्रता के बाद भारत में आर्थिक, सामाजिक, व्यापारिक सहित समग्र विकास के उद्देश्य से जल संसाधन के उपयोग हेतु योजनाएं तैयार की गई। बिहार में भी इन उद्देश्यों को ध्यान में रखकर कई परियोजनाएं बनायी गई हैं, जिनमें तीन प्रमुख हैं-
- सोन परियोजना, 2. गंडक परियोजना, 3. कोसी परियोजना।
सोन नदी-घाटी परियोजना : सोन नदी-घाटी परियोजना बिहार की सबसे प्राचीन परियोजना के साथ-साथ यहाँ की पहली परियोजना है। ब्रिटिश सरकार ने सिंचित भूमि में वृद्धि कर अधिकाधिक फसल उत्पादन की दृष्टि से इस परियोजना का विकास 1874 ई० में किया था।
सुविकसित रूप से यह नहर तीन लाख हेक्टेयर भूमि को सिंचित करती हैं। 1968 ई० में इस योजना के डेहरी से 10 किमी० की दूरी पर स्थित इंद्रपुरी नामक स्थान पर बांध लगाकर बहुउद्देशीय परियोजना का रूप देने का प्रयास किया गया। इससे पुराने नहरों, जल का बैराज से पुनर्पूर्ति, नहरी विस्तारीकरण एवं सु-ढ़ीकरण हुआ है। यही वजह है कि सोन का यह सूखाग्रस्त प्रदेश आज बिहार का ‘चावल का कटोरा’ के नाम से विभूषित हो रहा है।
इस परियोजना के अंर्तगत जल-विद्युत उत्पादन के लिए शक्ति-गृह भी स्थापित हुए हैं। पश्चिमी नहर पर डेहरी के समीप शक्ति-गृह की स्थापना की गई है। जिससे 6. 6 मेगावाट ऊर्जा प्राप्त होती है। इस ऊर्जा का उपयोग डालमियानगर का एक बड़े औद्योगिक-प्रतिष्ठान के रूप में उभर रहा है।
बिहार विभाजन के पूर्व ‘इंद्रपुरी जलाशय योजना’, ‘कदवन जलाशय योजना’ के नाम से जानी जाती थी।
इसके अतिरिक्त भी बिहार के अंर्तगत कई नदी घाटी परियोजनाएं प्रस्तावित हैं; जिसके विकास की आवश्यकता है। जिनमें दुर्गावती जलाशय परियोजना, ऊपरी किऊल जलाशय परियोजना, बागमती परियोजना तथा बरनार जलाशय परियोजना इत्यादि शामिल है।
लघुउत्तरीय प्रश्न
पश्न 1. बहुउद्देशीय परियोजना से आप क्या समझते है?
उत्तर- ऐसे परियोजना, जिसका निर्माण एक साथ कई उद्देश्यो की पूर्ति के लिए किया जाता है, उसे बहुउद्देशीय परियोजना कहते हैं। बहुउद्देशीय परियोजना के कई उद्देश्य है, बाढ़ नियंत्रण, मृदा अपरदन पर रोक, पेय एवं सिंचाई के लिए जलापूर्ति, परिवहन, मनोरंजन, जल-कृषि, पर्यटन आदि।
प्रश्न 2. जल संसाधन के क्या उपयोग है? लिखें।
उत्तर- जल संसाधन का उपयोग घरेलु कार्य, सिचाई, जन-स्वास्थ्य, तथा मल-मुत्र विसर्जन इत्यादि कार्य के लिए जल किया जाता है। जल विद्युत निर्माण तथा परमाणु-संयत्र, शीतलन, जल-कृषि, वानिकी जैसे कार्य जल के द्वारा ही किया जाता है।
पश्न 3. अंतर्राज्यीय जल-विवाद के क्या कारण है?
उत्तर- भारत में ऐसी नदियाँ है जो एक से अधिक राज्यों के बीच से बहती है, उत्तर भारत में गंगा, पूर्वी भारत में ब्राहम्पुत्र दक्षिण भारत में कृष्णा, कावेरी आदि अनेक ऐसी ही निइयाँ है, विकास में सिचाई, पालन, बहुउद्देशीय परियोजना का निर्माण नदी जल से होती है।
प्रश्न 4. जल संकट क्या है?
उत्तर- जल की अनुपलब्धता को जल-संकट कहा जाता है। बढ़ती जनसंख्या, उनकी मांग तथा जल के असमान वितरण भी जल दुर्लभता का परिणम है। स्वीडेन के एक विशेषज्ञ फॉल्कन मार्क के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को प्रति दिन एक हजार घन मीटर जल की आवश्यकता है। इससे कम जल उपलब्धता को जल संकट कहा जाता है।
प्रश्न 5. भारत की नदियों के प्रदूषण के कारणों का वर्णन करें।
उत्तर- भारत की नदियों के प्रदूषण के कारण निम्नलिखित हैं—
- शहरों में बढ़ती आबादी और जीवन-शैली।
- वाहित मल-जल का नदियों में प्रवाहित करना।
- धार्मिक अनुष्ठान जैसे मूर्ति विसर्जन और अस्थियों का विसर्जन।
- औद्योगिक कचरों को बिना शुद्ध किए नदियों में गिराना।
- शवों का विसर्जन
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. जल संरक्षण से आप क्या समझते है? इसके क्या उपाय है ?
उत्तर- जल की उपलब्धता बनाए रखना जल संरक्षण कहलाता है। जल संसाधन की सीमीत आपूर्ति, तेजी से फैलते प्रदूषण एवं समय की माँग को देखते हुए जल संसाधनों का संरक्षण एवं प्रबंधन आवश्यक है जिससे स्वस्थ, जीवन, खाद्यान्न-सुरक्षा, आजीविका और उत्पादक अनुक्रिया को सुनिश्चित किया सके। जल संसाधन के दुर्लभता या संकट निवारण हेतु सरकार ने ‘सितम्बर 1987′ में राष्ट्रीय जल नीति’ को स्वीकृत किया।
जल संरक्षण की उपाय निम्न है—
(1) भूमिगत जल की पुर्नपूर्ति- पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने ‘जल मिशन’ संदर्भ देकर भूमि जल पुनपूर्ति पर बल दिया था जिससे खेतों, गाँवों, शहरों, उद्योगों को जल मिल सके। इसके लिए वृक्षारोपन जैविक तथा कम्पोस्ट खाद के प्रयोग का संरक्षण, वर्षा जल के संचयन एवं मल-जल पुन-चक्रण जैसे क्रियाकलाप उपयोगी हो सकतें है।
(2) जल संभर प्रबंधन- जल प्रवाह या जल जमाव का उपयोग कर उद्यान, कृषि वानिकी और जल कृषि को बढ़ाया जा सकता है। इससे पेय जलापूर्ति भी की जा सकती है।
(3) तकनीकी विकास- तकनीकी विकास से तात्पर्य है ऐसे उपक्रम जिसमें जल का कम से कम उपयोग कर अधिक लाभ लिया जा सके। जैसे- ड्रिप सिंचाई, सुक्ष्म फुहारों से सिंचाई, सीढ़ीनुमा खेती इत्यादि।
प्रश्न 2. वर्षा जल की मानव जीवन में क्या भूमिका है? इसके संग्रहण व पुन: चक्रण के विधियों का उल्लेख करें।
उत्तर- हमारे लिए उपयोगी जल की एक बड़ी मात्रा वर्षा जल द्वारा ही पूरी होती है। खासकर। हमारे देश की कृषि वर्षाजल पर ही आधारित होती है। पश्चिम भारत खासकर राजस्थान में पेयजल हेतु वर्षाजल का संग्रहण छत पर किया जाता था। पं. बंगाल में बाढ़ मैदान में सिंचाई के लिए बाढ़ जल वाहिकाएँ बनाने का चलन था।
शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में वर्षा जल को एकत्रित करने के लिए गड्ढों का निर्माण किया जाता है, जिससे मृदा सिंचित कर खेती की जा सकती है। इसे राजस्थान के जैसलमेर में “खादीन” और अन्य क्षेत्रों में “जोहड़” के नाम से जाना जाता है। राजस्थान के वीरानों फलोदी और बाड़मेर जैसे शुष्क क्षेत्रों में पेयजल का संचय भूमिगत टैंक में किया जाता है जिसे “टाँका” कहा जाता है। इसे प्रायः आंगन में हुआ करता है जिसमें छत पर संग्रहित जल को पाइप द्वारा जोड़ दिया जाता है।
इस कार्य में राजस्थान की N.G.O. ‘तरुण भारत संघ’ पिछले कई वर्षों से कार्य कर रही है। मेघालय के शिलांग में छत वर्षाजल का संग्रहण आज भी चलता है। कर्नाटक के मैसूर जिले में स्थित गंगथर गाँव में 200 घरों में छत-जल संग्रहण का व्यवस्था है जो एक संरक्षण का उदाहरण है। वर्तमान समय में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात सहित कई राज्यों में वर्षा-जल संरक्षण और पुनर्चक्रण किया जा रहा है।
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