दिया गया पाठ का नोट्स और हल SCERT बिहार पाठ्यक्रम पर पूर्ण रूप से आधारित है। इस लेख में बिहार बोर्ड कक्षा 10 भूगोल के खण्ड (ख) के पाठ सात ‘उपभोक्ता जागरण एवं संरक्षण(Upbhogta jagran evam sanrakshan Notes and Solutions)’ के नोट्स और प्रश्न-उतर को पढ़ेंगे।
7.उपभोक्ता जागरण एवं संरक्षण
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. आप किसी खाद्य पदार्थ संबंधी वस्तु को खरीदते समय कौन-कौन से मुख्य बातों का ध्यान रखेंगे बिंदुवार उल्लेख करें।
उत्तर- किसी खाद पदार्थ संबंधी वस्तुओं को खरीदे समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखेंगे।
(1) अवयवों की सूची
(2) वजन या परिमाण
(3) निर्माण का तिथि
(4) इस्तेमाल की समाप्ति
(5) निरामिष/शामिषचिन्ह
(6) डाले गए रंग और खुशबू की घोषणा
(7) पोषाहार का दावा- सम्मिलित पौष्टिक तत्वों की मात्राएं
(8) स्वास्थ्य के प्रति हानिकारक चेतावनी
(9) वैधानिक चेतावनी- तंबाकू/शिशु के लिए हल्का विकल्प
प्रश्न 2. उपभोक्ता जागरण हेतु विभिन्न नारों को लिखें।
उत्तर- उपभोक्ता जागरण हेतु विभिन्न नारे निम्न है
(1) सतर्क उपभोक्ता ही सुरक्षित उपभोक्ता है
(2)ग्राहक, सावधान
(3)अपने अधिकारों को पहचानो
(4)जागो ग्राहक जागो
(5)उपभोक्ता के रूप में अपने अधिकारों की रक्षा करो
प्रश्न 3 कुछ ऐसे कारको की चर्चा करें जिसमें उपभोक्ताओं का शोषण होता है।
उत्तर- उपभोक्ता शोषण के मुख्य कारक निम्न है।
(1) मिलावट की समस्या- महंगी वस्तुओं में मिलावट करके उपभोक्ता का शोषण होता है
(2) कमतौलने द्वारा- वस्तु के माप में हेराफेरी करके भी उपभोक्ता का शोषण होता है
(3) कम गुणवत्ता वाली वस्तु-उपभोक्ता को धोखे से अच्छी वस्तु का स्थान पर कम गुणवत्ता वाली वस्तु देकर शोषण करना
(4) ऊँची कीमत द्वारा- ऊंची किमते वसूल करके भी उपभोक्ता का शोषण किया जाता है
(5) डुप्लीकेट वस्तुएं- सही कंपनी का डुप्लीकेट वस्तूए प्रदान कर के उपभोक्ता का शोषण किया जाता है।
प्रश्न4. उपभोक्ता के रूप में बाजार में उनकेकुछ कर्तव्यों का वर्णन करें।
उत्तर- उपभोक्ता जब कोई वस्तु खरीदा है तो यह आवश्यक है कि वह उस वस्तु की रसीद अवश्य ले लें एवं वस्तु की गुणवत्ता ब्रांड मात्रा शुद्धता, मानक माप तौल उत्पाद/निर्माण की तिथि उपभोक्ता की अंतिम तिथि गारंटी/वारंटी पेपर गुणवत्ता का निशान जैसे आई एस आई मार्क,एग मार्क, हॉलमार्क और मुल्य की दृष्टि से किसी प्रकार के के दोष, आपूर्णता पाते है तो सेवाएं लेते समय अतिरिक्त सतर्कता एवं जागरूकता रखें
प्रश्न 5. उपभोक्ता कौन है ?संक्षेप में बताएं ।
उत्तर-‘उपभोक्ता’ बाजार व्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग है।सेवाएं अपने प्रयोग के लिए खरीदाता है तब उपभोक्ता कहलाता है।खरीदारी से ऐसी वस्तुओं और सेवाओं का प्रयोग करने वाला व्यक्ति भी उपभोक्ता है।
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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. उपभोक्ता के कौन-कौन अधिकार हैं ? प्रत्येक अधिकार को सोदाहरण लिखें ।
उत्तर- प्रदेश व्यक्ति का यह अधिकार है कि वह जिस वस्तु का उपभोक्ता है उसके बारे में पूर्ण जानकारी लें, जैसे- वस्तु का गुण, मात्रा, वस्तु बनाने में, प्रयुक्त तत्व तथा इनमें होने वाले प्रभाव को जाने यदि उपभोक्ता किसी विशेष वस्तुओं का उपयोग करता है और सामान खराब निकलता है। तो उपभोक्ता अपने निकटतम ‘उपभोक्ता’ केंद्र में उसकी उचित शिकायत दर्ज करवा कर मुआवजा प्राप्त कर सकता है।
प्रश्न 2. ‘उपभोक्ता’ संरक्षण अधिनियम 1986 की मुख्य विशेषताओं को लिखें।
उत्तर-भोक्ता संरक्षण अधिनियम के भारत सरकार द्वारा 1986 ई. में लाया गया था। इस अधिनियम के अंतर्गत उपभोक्ता के अधिकार एवं हितों का संरक्षण किया जाता है इस अधिनियम के अंतर्गत उपभोक्ता के अधिकार एवं हितो का संरक्षण किया जा है।
इस अधिनियम के अंतर्गत उपभोक्ता को निम्न आधिकार दिया गया हैा
(1) सुरक्षा का अधिकार
(2) जानकारी प्राप्त करने का अधिकार
(3) चुनने का अधिकार
(4) सुनवाई का अधिकार
(5) शिकायत-निवारण का अधिकार
(6) उपभोक्ता-शिक्षा का अधिकार
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प्रश्न 3.उपभोक्ता संरक्षण हेतु सरकार द्वारा गठित न्यायिक प्रणाली (स्तरीय प्रणाली) को विस्तार से समझाएं
उत्तर- उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 में गठित न्यायिक प्रणाली या त्रिस्तरीय प्रणाली आर्द्धन्यायिक व्यवस्था है जिसमें जिला मंचो राज्य आयोग एवं राष्ट्रीय आयोग की स्थापना की गई हैा
अगर उपभोक्ता राष्ट्रीय फोरम से संतुष्ट नहीं होती हैतो वह आदेश के 30 दिनों के अंदर उच्चतम न्यायालय (S.C) में अपील कर सकता है।
प्रश्न 4. दो उदाहरण देकर उपभोक्ता जागरूकता की जरूरतों का वर्णन करें।
उत्तर- उपभोक्ता जागरूकता के दो उदाहरण निम्नलिखित है। (1) गैस एजेंसीया
गैस एजेंसी द्वारा उपभोक्ता के घरों तक सिलेंडर समय पर नहीं पहुंचाया जाता है जिससे उपभोक्तागण मजबूरी में कालाबाजारी का शिकार होते हैं तथा बाध्य होकर गैस एजेंसी का चक्कर लगाना पड़ता है और उसका शोषण किया जाता है।
(2) शिक्षण संस्थान
शिक्षण संस्थान बहुतायत रूप में गली-गली खुलते जा रहे हैं, जो कि गैर मान्यता प्राप्त होते हैं जिसमें योग्य शिक्षक, पुस्तकालय, प्रयोगशाला ,फर्नीचर, खेल का मैदान तथा मानव पाठ्यक्रम का अभाव होता है तथा यह भ्रामक प्रचार प्रसार द्वारा छात्रों को झूठा वादा करो गलत ढंग से फीस वसूलते हैं।
प्रश्न 5.मानव अधिकार के महत्व पर लिखें।
उत्तर-हमारे देश में राष्ट्रीय स्तर पर एक उच्चतम संस्था है, जो मानवीय अधिकारों की रक्षा और उनके अधिकारों से संबंधित हितों के लिए सुरक्षा प्रदान करती है इस संस्था को राष्ट्रीय मानवअधिकार आयोग कहते हैं।
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का महत्व इस बात से बढ़ जाता है कि इसका अध्यक्ष भारत के उच्चतम न्यायालय (S.C) के अवकाश प्राप्त प्रधान न्यायाधीश होते हैं इसी तरह देश के प्रत्येक राज्य में एक राज्य मानव अधिकार आयोग का गठन किया जाता है जो देश के नागरिकों के अधिकार और सुरक्षा संबंधी बातों को देखती है।
इसी आधार पर महिलाओं के ऊपर हुए अत्याचार अथवा शोषण संबंधी शिकायत के निराकरण के लिए देश के स्तर पर राष्ट्रीय महिला आयोग तथा राज्य महिला आयोग का गठन भी किया गया है।
लोकतांत्रिक राजनिति
- लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी
इस अध्याय में यह जानने की कोशिश करेंगे कि सामाजिक विषमताके कारण लोकतंत्र में द्वंद्व में तत्तव किस प्रकार अंर्तनिहित है? जातीय एवं सांप्रदायिक विविधता लोकतंत्र को किस प्रकार प्रभावित करता है ? लिंग भेद के आधार पर लोकतांत्रिक व्यवहार किस प्रकार परिवर्तित होता है ? किस
तरह लोकतंत्र सारी सामाजिक विभिन्नताओं, अंतरों और असमानताओं के बीच सामंजस्य बैठाकर उनका सर्वमान्य समाधान देने की कोशिश करता है ?
लोकतंत्र में द्वन्द्ववाद
लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में लोग ही शासन के केन्द्र बिन्दु होते हैं। लोकतंत्र ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें लोगों के लिए एवं लोगों के द्वारा ही शासन चलाया जाता है।
द्वन्द्ववाद का अर्थ- बातचीत या तर्क-वितर्क करना।
लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सामाजिक विभाजन के स्वरूप-लोकतांत्रिक व्यवस्था में सामाजिक विभाजन अलग-अलग स्वरूप तथा भेदभाव के विरोध का अलग-अलग तरीके होते हैं।
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क्षेत्रीय भावना के आधार पर सामाजिक बंटवारा और भेदभाव तथा विरोध और संघर्ष की शुरूआत होती हैं। मुंबई, दिल्ली, कोलकाता में उत्तर भारत के बिहारी और उत्तर प्रदेश के लोगों के विरूद्ध हिंसात्मक व्यवहार इसका उदाहरण हैं। अमेरिका में नस्ल या रंग के आधार पर होता हैं और श्रीलंका में भाषा और क्षेत्र दोनों आधार पर होता हैं।
भारत में सामाजिक विभाजन भाषा, क्षेत्र, संस्कृति, धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर होता हैं।
सामाजिक भेदभाव एवं विविधता की उत्पति व्यक्ति को समुदाय या जाति का चुनाव करना उसके बस की बात नही हैं। कोई व्यक्ति जन्म के कारण ही किसी समुदाय का सदस्य बन जाता हैं।
दलित परिवार में जन्म लेनेवाला बच्चा उस समुदाय का सदस्य हो जाता हैं। स्त्री पुरूष, काला, गोरा, लम्बा-नाटा आदि जन्म का परिणाम हैं।
सामाजिक विभाजन जन्म आधारित नही होते हैं। बल्कि कुछ हम अपने इच्छा से भी चुनते हैं। जैसे कोई व्यक्ति अपने इच्छा से धर्म परिवर्तन कर लेता हैं। कुछ व्यक्ति नास्तिक बन जाता हैं।
एक ही परिवार के कई लोग किसान,सरकारी सेवक, व्यापारी, वकील आदि पेशा अपनाते हैं। जिसके कारण उनका समुदाय अलग हो जाता हैं तथा समुदायां के हित साधना एक-दूसरे के विपरित भी हो सकती हैं।
सामाजिक विभिन्नता और सामाजिक विभाजन में अंतर कोई आवश्यक नही हैं कि सभी सामाजिक विभिन्नता सामाजिक विभाजन का आधार होता हैं। संभव हो भिन्न समुदायों के विचार भिन्न हो सकते हैं। परन्तु हित सामान होगा जैसे मुंबई में मराठियों के हिंसा का शिकार व्यक्तियों की जातियाँ भिन्न थी, धर्म भिन्न होंगें, लिंग भिन्न हो सकता हैं। परन्तु उनका क्षेत्र एक ही था। वे सभी एक ही क्षेत्र उत्तर भारतीय थे। उनका हित समान था। वे सभी अपने व्यवसाय और पेशा में संलग्न थे। इस कारण सामाजिक विभिन्नता साजिक विभाजन का रूप नही ले पाता।
सामाजिक विभिन्नता का अर्थ हैं कि एक समुह के लोग अपने जाति, धर्म, भाषा, सभ्यता के कारण भिन्न-भिन्न होते हैं।
सामाजिक विभाजन एवं विभिन्नता में बहुत बड़ा अंतर हैं- सामाजिक विभाजन तब होता हैं जब कुछ सामाजिक अंतर दुसरी अनेक विभिन्नताओं सें ऊपर और बड़े हो जाते हैं। स्वर्णों और दलितो का अंतर एक सामाजिक विभाजन हैं। क्योंकि दलित सम्पूर्ण देश में आमतौर पर गरीब, वंचित एवं बेसहारा हैं और भेदभाव का शिकार है जबकि स्वर्ण आमतौर पर सम्पन्न एवं सुविधायुक्त हैं। अर्थात दलितों को यह महसुस होने लगता हैं कि वे दुसरे समुदाय के है। जब एक तरह का सामाजिक अंतर अन्य अंतरों से ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाता है और लोगों को यह महसुस होने लगता है कि वे दुसरे समुदाय के हैं तो इससे सामाजिक विभाजन कि स्थिति पैदा होती है। अमेरिका में श्वेत और अश्वेत का अंतर सामाजिक विभाजन हैं।
सामाजिक विभाजन में जाति राजनीति में सामाजिक विभाजन के सकारात्मक और नाकारात्मक दोनों पहलू की महता है। जाति व्यवस्था राजनिति में कई तरह की भूमिका निभाती हैं।
एक तरफ राजनिति मे जातीय विभिन्नताएँ और असमानताएँ वंचित और कमजोर समुदायों के लिए अपनी बातें आगे बढ़ाने और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी माँगने की गुँजाइस भी पैदा करती हैं। तो दूसरी ओर सिर्फ जाति पर जोर देना नुकसानदेह होता हैं।
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राजनिति में जाति
राजनीति में जातियों का अनेक पहलु होते हैं। जैसे-
- निर्वाचन के वक्त पार्टी उसी जाति के अभ्यर्थी को वोट देती है, जिसकी जातियों की संख्या अधिक होती है ताकि चुनाव जीतने के लिए जरूरी वोट उसे मिल सके।
- राजनीतिक पार्टीयाँ चुनाव जीतने के लिए जातिगत भावना भड़काने की कोशिश करता है।
- दलित और नीची जातियों का महŸव भी निर्वाचन के वक्त बढ़ जाता है।
चुनाव की जातियता में ह्रास की प्रवृति
राजनिति में यह धारणा बन जाती हैं कि चुनाव और कुछ नहीं बल्कि जातियों का खेल हैं। परन्तु ऐसी बात नहीं है। राजनीति में अनेक अवधारनाएँ भी महत्तवपूर्ण होती हैं।
- निर्वाचन क्षेत्र का गठन इस प्रकार नहीं किया गया है कि उसमें मात्र एक जाति के मतदाता रहे। इसलिए चुनाव जीतने के लिएहर पार्टी एक या एक से अधिक जाति के लोगों का भरोसा हासिल करना चाहता है।
- ऐसा संभव नहीं होता है कि कोई पार्टी केवल एक ही जाति का वोट हासिल कर सत्ता में आ सकता है।
- अगर जातीय भावना स्थायी होता, तो जातीय गोलबंद पर सत्ता में आनेवाली पार्टी की कभी हार नहीं होती। क्षेत्रीय पार्टियाँ भले ही जातीय गुटों से संबंध बनाकर आ जाए, परन्तु अखिल भारतीय चेहरा पाने के लिए जाति विहिन, साम्प्रदायिकता के परे विचार रखना आवश्यक होगा।
ऊपर लिखे गए बातों से स्पष्ट होता है कि राजनीति में जाति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, परन्तु दूसरे कारक भी असरदार होता है।
सांप्रदायिकता
राजनीति में धर्म समस्या के रूप में निम्नलिखित कारणों से खड़ी हो जाती है-
- धर्म को राष्ट्र का आधार मान लिया जाता है।
- राजनीति में धर्म की अभिव्यक्ति एक समुदाय विशिष्ठता के लिए की जाती है।
- राजनीति किसी धर्म विशेष दावे को स्पोर्ट करने लगती है।
- किसी धर्म विशेष के अनुयायी दूसरे धर्म के मानने वाले लागों के लिए मोर्चा खोल देता है। एक धर्म के विचारों का दूसरे धर्म से श्रेष्ठ माना जाने लगता है। जिससे दो धार्मिक समुदायों के बीच तनाव शुरू हो जाता है।
राजनीति में धर्म को इस तरह इस्तेमाल करना ही सांप्रदायिकता कहलाता है।
सांप्रायिकता की परिभाषा-जब हम यह कहने लगते हैं कि धर्म ही समुदाय का निर्माण करती है तो साम्प्रदायिक राजनीति जन्म लेती है और इस अवधारणा पर आधारित सोच ही सांप्रदायिकता है।
राजनीति में सांप्रदायिकता का स्वरूप-
- सांप्रदायिकता का सोच प्रायः अपने धार्मिक समुदाय का प्रमुख राजनीति में बरकरार रखना चाहता है। जो लोग बहुसंख्यक समुदाय के होते हैं उसकी कोशिश बहुसंख्यकवाद के रूप ले लेती है। जैसे श्रीलंका के सिंहलियों का बहुसंख्यकवाद। वहाँ की निर्वाचित सरकार ने सिंहली समुदाय की प्रभुता कायम करने के लिए कई कदम उठाए। उदाहरण के लिए 1956 में सिंहली एकमात्र राजभाषा के रूप में घोषित करना, विश्वविद्यालय और सरकारी नौकरियों में सिंहलियों को प्राथमिकता देना, बौद्ध धर्म के संरक्षण हेतु कई कदम उठाना आदि।
- सांप्रदायिकता के आधार पर राजनीति गोलबंदी सांप्रदायिकता का दूसरा रूप है। इसके लिए पवित्र प्रतीकों, धर्म गुरुओं और भावनात्मक अपील आदि का सहारा निर्वाचन के वक्त लिया जाता है। किसी खास धर्म के अनुयायियों से किसी पार्टी विशेष के पक्ष में मतदान करने की अपील कराई जाती है।
- सांप्रदायिकता का भयावह रूप तब देखते हैं, जब संप्रदाय के आधार पर हिंसा, दंगा और नरसंहार होता है।
धर्मनिरपेक्ष शासन की अवधारणा
हमारे समाज में धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना हेतु अनेक उपाय किये गए हैं-
- हमारे देश में किसी भी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। श्रीलंका में बौद्ध धर्म, पाकिस्तान में इस्लाम और इंगलैंड में इसाई धर्म का दर्जा मिला हुआ है, लेकिन इसके विपरित भारत का संविधान किसी भी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता।
- भारत के संविधान में प्रत्येक नागरिक को यह स्वतंत्रता दी गई है कि वह अपने विश्वास से किसी भी धर्म को स्वीकार कर सकता है। प्रत्येक धर्म के मानने वालों को अपने धर्म का पालन करने अथवा शांतिपूर्ण ढ़ंग से प्रचार करने का अधिकार है।
- हमारे संविधान के अनुसार धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव असंवैधानिक घोषित है।
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लैंगिक मसले और राजनीति
लैंगिक असमानता सामाजिक असमानता का एक महत्वपूर्ण रूप है। लैंगिक असमानता सामाजिक संरचना के हर क्षेत्र में दिखाई पड़ता है।
लड़के और लड़कियों के पालन-पोषण के क्रम में ही परिवार में यह भावना घर कर जाती है कि भविष्य में लड़कियों की मुख्य जिम्मेवारी गृहस्थी चलाने और बच्चों का पालन-पोषण तक ही सीमित होती है। उनका काम खाना बनाना, कपड़ा साफ करना, सिलाई-कड़ाई करना तथा बच्चों का पालन-पोषण आदि है। अगर वहीं मर्द घर के अंदर इन सभी कार्यों को करता है, तो उस पर समाज में छीटाकसी की जाती है।
आधुनिक दौड़ में महिलाएँ जीवन के हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। भारत कृषि प्रधान देश है और यहाँ के लोगों के आजीविका का मुख्य आधार कृषि है। किसान शब्द का जब उच्चारण किया जात है तो लोगों के दिमाग में पुरूष का चेहरा उभर कर आता है। जबकि सच्चाई यह है कि कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी पुरूषों की तुलना में कम नहीं है। कृषि क्षेत्र में महिलाओं का योगदान बढ़ा हुआ है। इन बातों की पुष्टी निम्नलिखित आँकड़ों से होती है-
- कृषि कार्य क्षेत्र में महिलाओं की कुल भागीदारी 40 प्रतिशत है।
- कुल पुरूष कामगारों में 53 प्रतिशत पुरूष और महिला कामगारों में 73 प्रतिशत महिलाएँ कृषि क्षेत्र में है।
- ग्रामीण महिला कामगारों में 85 प्रतिशत महिला कृषि से जुड़ी हुई है।
भारत की कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी कम नहीं है, परन्तु दुख की बात यह है कि कृषि क्षेत्र में शामिल महिलाओं को पुरूषों की तुलना में कम मजदूरी दिया जाता है।
मनुष्य जाति के आबादी में औरतों का हिस्सा आधा है पर सार्वजनिक जीवन में खासकर राजनीति में इनकी भूमिका ना के बराबर है।
पहले पुरुषों को ही सार्वजनिक मामलों में भागीदारी करने, वोट देने या सार्वजनिक पदों के लिए चुनाव लड़ने की अनुमति थी। धीरे-धीरे राजनीति में मुद्दे उठे और महिलाओं को भी सार्वजनिक जीवन में अवसर प्राप्त होने लगा।
सर्वप्रथम इंगलैंड में 1918 में महिलाओं को वोट देने का अधिकार प्राप्त हुआ। उसके बाद धीरे-धीरे अन्य लोकतांत्रिक देशों में भी महिलाओं को वोट देने का अधिकार प्राप्त होने लगा। आज प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति को देखा जा सकता है।
यूरोपीय देशों में महिलाओं की भागीदारी सार्वजनिक तौर पर काफी ऊँचा है। भारत में अभी भी उतना संतोषजनक नहीं है। भारत का समाज अभी भी पुरुष-प्रधान है। औरतों के साथ कई तरह के भेद-भाव होते हैं।
महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व-औरतों के प्रति समाज में घटिया नजरिया के कारण ही महिला आंदोलन की शुरूआत होने लगी। महिला आंदोलन की मुख्य माँगों में इनकी सत्ता में भागीदारी सर्वोपरी माँग थी।
औरतों ने सोचना शुरू कर दिया कि जब तक महिलाओं की सत्ता में भागीदारी नहीं होगी तब तक इस समस्या का निबटारा नहीं होगा।
भारत के लोकसभा में महिलाओं की संख्या 59 हो गई है जो कुल सीट का 11 प्रतिशत है। ग्रेट ब्रिटेन में 19.3 प्रतिशत तथा अमेरिका में 16.3 प्रतिशत महिला प्रतिनिधि है। विकसित देशों में भी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी संतोषजनक नहीं है। राजनीति मे महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाना लोकतंत्र के लिए शुभ होता है।
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