19. जागरण-गीतम्
(जागरण-गीत)
जागृष्व उत्तिष्ठ तत्परो भव
ते लक्ष्यमार्ग आवाहयति ।
लोकोऽयं सहसा प्रेरयति ।
भेरी नादम् उच्चारयति ।
सत्यं, ध्येयं दूरऽस्माकं,
साहसमपि नहि न्यूनम् अस्ति ।
सङ्गे मित्राणि बहूनि पथि,
चरणेषु तथाडूगदबलमस्ति ।
भस्मीकर्तुम् स्वर्णिम लङ्का,
स अग्नियुतस्तु समायाति ॥
प्रतिपदं कण्टकाकीर्ण वै,
व्यवहारकुशलता अस्मासु ॥
विजयस्य च दृढविश्वासयुता,
निष्ठा कर्मठता अस्मासु ।
विजयि पूर्वज जनपरम्परा,
बहुमूल्यधना तु सा जयति ।
अनुगा वै सिंह शिवस्य वयं
राणाप्रतापसम्मानधनाः ।
संघटनतन्त्रे शक्तिस्तन्त्र,
वैभवचित्रं तु विभूषयति ॥
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अर्थ : जागो, उठो, तत्पर हो तुम्हारा लक्ष्य मार्ग पर आह्वान कर रहा है।
यह संसार तुमको सहसा प्रेरित कर रहा है युद्ध के नगारे अपना आवाज दे रहे है।
यह सत्य है कि हमारा लक्ष्य दूर है परन्तु साहस भी कम नहीं है।
रास्ते में बहुत मित्र संग भी हैं तथा पैरों में वैसा बल भी है।
स्वर्णिम लंका को भस्म करने के लिए वह आग भी साथ है।
पग-पग काँटे बिछे हैं पर ये मेरे पैर व्यवहार कुशल हैं और विजय का दृढ विश्वास लिये है निष्ठा और कर्मठता भी हमारे साथ है।
विजयी पूर्वज लोगों की परम्परा बहुमूल्य धन है जो जय प्रदान करती है।
हमलोग शिव के सिंह के अनुचर हैं और राणा प्रताप के सम्मान से धनी हैं। जहाँ संगठन है वही शक्ति है, यह विचित्रता रूपी वैभव से परिपूर्ण है।
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